परम पूज्य आचार्य श्री एवं परम पूज्य आर्यिका माता जी की 42 साल बाद खुरई में हुई ऐतिहासिक मुलाकात
“जिसने श्वांस पर नियंत्रण पा लिया वही जीता है कबड्डी का खेल” -आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज
खुरई (म.प्र.)-: परम पूज्य आचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज एवं गणिनी अार्यिका श्री ज्ञानमति माताजी का ससंघ मिलन 42 वर्षाें के बाद खरई में हुअा। अार्यिका श्री ने अाचार्य श्री से ससंघ अाशीर्वाद प्राप्त किया। संघ की अार्यिका माताओं ने 12 वर्षाें के संयाेग के बारे में बताते हुए कहा कि “शरदपूर्णिमा के दिन सन् 1934 काे अार्यिका श्री ज्ञानमति माताजी का जन्म हुअा और शरदपूर्णिमा के दिन ही सन् 1946 में अाचार्य श्री विद्यासागर जी महाराज का जन्म हुअा था। अार्यिकाश्री ने 1956 में अार्यिका दीक्षा ली, अाचार्यश्री ने 1968 में मुनिदीक्षा ली। इनमें 12 वर्षाें का ही अंतर है। दाेनाें काे भगवान ऋषभदेव के पुत्र एवं पुत्री की उपमा दी गई है। साधर्मी भाई-बहन के मिलन काे पावन अवसर बताया गया।
देश में अापातकाल के समय अाचार्यश्री बुंदेलखंड अा गए अाैर अार्यिकाश्री हस्तिनापुर क्षेत्र में पहुँच गयीं थीं। अार्यिका श्री ज्ञानमति माता जी अाचार्य श्री देशभूषण जी महाराज के समय की मांगीतुंगी में स्थापित विशाल प्रतिमा का पंचकल्याणक कराकर लाैट रहीं थीं, वह अाचार्य श्री शिवसागर जी द्वारा स्थापित अयाेध्या की प्रतिमा के दर्शन करने जा रहीं हैं। दाेनाें संघ अापस में मिलन के लिए अातुर थे, मिलन के समय सभी के अधराें पर मुस्कुराहट थी।
एक ही संघ के हैं दाेनाें साधु
20 वीं शताब्दी के अाचार्यश्री शाँतिसागर जी महाराज ने जैन साधु परम्परा काे अक्षुण्ण रखा। उनके शिष्य अाचार्यश्री वीरसागर जी महाराज हुए। जिनसे अार्यिका श्री ज्ञानमति माताजी ने दीक्षा ली। मुनिश्री शिवसागर जी दीक्षित हुए, बाद में वह अाचार्य हाे गये। उनसे मुनिश्री ज्ञानसागर जी महाराज ने दीक्षा ली। मुनिश्री ज्ञानसागर जी महाराज, अार्यिकाश्री ज्ञानमति माताजी एक ही संघ में रहे। बाद में अाचार्यश्री ज्ञानसागर महाराज हुए, उनसे दीक्षा मुनिश्री विद्यासागर महाराज ने ली। बाद में वह अाचार्य हाे गये अब वह बुंदेलखंड के अाचार्य श्री हैं।
अार्यिकाश्री ज्ञानमति माताजी ने कहा कि हम अाैर अाप सभी भाग्यशाली हैं। हमें पंचमकाल में भी भगवान ऋषभदेव की छत्रछाया अाैर भगवान महावीर का जिनशासन मिला। कई जन्माें के पुण्य के फलस्वरूप जैन कुल में जन्म हुअा, णमाेकार जपने का अवसर मिला। बचपन से ही संस्कार अाये!तब मन में वैराग्य अाया, अार्यिका दीक्षा मिली। उन्हाेंने पुराने दिनाें के प्रसंग काे याद करते हुए कहा कि 1959 में अाचार्यश्री शिवसागर महाराज के साथ मुनिश्री ज्ञानसागर महाराज थे हम अार्यिकायें भी साथ में ही थे। तीन साल संघ के साथ में रहे। अजमेर में पहला चातुर्मास हुअा, सुजानपुर, सीकर में चार्तुमास हुए। सभा में जब एक श्लाेक का अनुवाद करना था ताे संस्कृत के प्रकांड विद्वान मुनिश्री ज्ञानसागर महाराज से अनुवाद कराया गया। श्लाेक में यह बताया गया कि अाैचित्य गुण सबसे महत्वपूर्ण हैं, सारे गुणाें काे तराजू के एक पलवे पर रख दाे अाैर दूसरी तरफ अाैचित्य गुण रखाे। अगर सारे गुणाें में अाैचित्य गुण अलग कर दिया जाए ताे अन्य गुण शून्य हाे जाएंगे। अाैचित्य का तात्पर्य कर्तव्य से है, अाचार्य,मुनि, अार्यिका, ब्रह्मचारी, ब्रह्मचारिणी,श्रावक का क्या कर्तव्य है यह सभी काे ध्यान रखना जरूरी है।
अाचार्यश्री ने कहा- जिसने श्वांस पर नियंत्रण पा लिया वही जीतता है कबड्डी का खेल ! अाप अाैर मैं भाई- बहन हैं, अापने भाई की सुध नहीं ली। हंसी करते हुए कहा कि पूछ ताे लेते भाई कैसा है। रक्षाबंधन पर राखी ताे अब बंधती नहीं, परन्तु रक्षाबंधन का त्याेहार ताे मना सकते हैं, उस दिन ही भाई को याद कर लाे। देश का अापातकाल मेरे लिए चतुर्थ काल बन गया, अागरा से दिल्ली जाते समय मैं मार्ग बदलकर बुंदेलखंड की अाेर अा गया। यहाँ अाकर देखा ताे पाया कि यहाँ चैतन्य रत्नाें की खान है। संघ में इतने चैतन्य रत्न मिले कि संघ बड़ा हाे गया ! अभी भी चैतन्य रत्न मिलते जा रहे हैं, यह खदान है। उन्हाेंने अार्यिकाश्री से कहा कि अाप हस्तिनापुर काे छाेड़कर यहाँ अा जायें, बुंदेलखंड काे ही हस्तिनापुर बना दें। अाचार्यश्री ने प्रसंगाे काे याद किया अाैर हंसी के बीच गहरी बातें की, श्रद्धालु हसंते रहे, तालियां बजती रहीं। अाचार्यश्री ने कहा कि कबड्डी का खेल अच्छा है लेकिन श्वांस दृढ़ हाेना चाहिए। जिसने श्वांस पर नियंत्रण कर लिया वह खेल जीत गया। इसी तरह मन पर नियंत्रण रखना भी अत्यन्त जरूरी है