सिरि भूवलय शास्त्र अनूठी सम्पदा है, जिसमें केवल अंकों-अंकों में कला-विज्ञान, तीन सौ त्रेषठ दर्शन और 718 भाषाएँ समाहित हैं, जिसमें सभी दर्शनों, सभी धर्मों के मूल ग्रन्थ व अध्यात्म समाहित है, यह अद्भुत आगम-निधि हमारी आत्मा का विभव है।
यह बात आचार्य श्री विभवसागर जी महाराज ने दिनांक 18 मई 2019 को जैन संस्कृति शोध संस्थान व श्री अखिल भारवर्षीय दिगम्बर जैन विद्वत् परिषद् के संयुक्त तत्त्वावधान में जिंसी-इन्दौर स्थित संस्थान-भवन में आयोजित एक व्याख्यान-संगोष्ठी में व्यक्त किये। उन्होंने संस्थान में संरक्षित तेरह सौ वर्ष प्राचीन ताडपत्रों की पाण्डुलिपियों व ताम्रपत्रों का अवलोकन कर कहा कि ऐसे शास्त्रों का मात्र दर्शन करके ही हमारे कर्मों की निर्जरा अर्थात् पापों का नाश होता है, इनके दर्शन कर हम धन्य हैं। उन्होंने डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’ द्वारा किये गये कार्य की प्रशंसा की।
पं. सुरेश जी मारौरा के मंगलाचरण, ब्र. श्री जिनेश मलैया के सभापति मनोनयन और दीप प्रज्ज्वल के साथ संगोष्ठी प्रारम्भ हुई। मुख्य व्याख्यान डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’ ने दिया। आपने इक्कीसवीं शदी में सर्व प्रथम प्रारम्भ किये अप्रतिम यंत्र-ग्रंथ सिरि भूवल के कार्य-प्रगति, पाण्डुलिपि प्राप्ति, पढ़ने की विशेष विधि-अन्वेषण और उसमें सफलता, 59वाँ अध्याय को सर्व प्रथम डिकोड करने, 64 भाषाएँ निकालने की विधि एक चार्ट के माध्यम से बताई, एक-एक पृष्ठ में 18 अलग-अलग भाषाओं में किया हुआ कार्य दिखाया। सिरि भूवलय के अन्य 34 से 64 अध्यायों तक के अपने कार्य को बताया। डाॅ. गजेन्द्र कुमार जैन ने श्री भूवलय पर किये गये कार्य और उसके महत्व पर प्रकाश डाला। जैन संस्कृति शोध संस्थान के अध्यक्ष श्री हेमंत सेठी, विद्वत् परिषद् के पदाधिकारी पं सुरेश मारौरा, कार्यकारिणी सदस्य पं. धर्मचन्द्र सुनवाहा, सर्वार्थसिद्धि संस्थान के अध्यक्ष डाॅ. गजेन्द्र कुमार जैन, सिरि भूवलय अन्वेषण परियोजना की परियोजनाधिकारी श्रीमती आशा जैन, वाराणसी महाविद्यालय के शास्त्री पं. शिखरचन्द्र जैन, जैन अभिभाषक संघ के एडवोकेट राकेश जैन, पुलक जन चेतना मंच के सक्रिय सदस्य श्री प्रवीण जैन, श्री अभिषेक जैन-मडावरा, श्री बवन कदम, बिक्की भैया, श्री विपुल पाल आदि ने भी अपने विचार व्यक्त किये। उपस्थित सहभागियों व जन समुदाय कोे श्रमणाचार्य श्री विभवसागर जी महाराज ने आशीर्वाद प्रदान किया। आचार्यश्री के साथ उनका संघ भी इस कार्यक्रम में पधारा था। संचालन पं. सुरेश मारौरा ने किया।