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Home›लेख-विचार›जैन समुदाय की उन्नति का रहस्य है आलोचना पाठ

जैन समुदाय की उन्नति का रहस्य है आलोचना पाठ

By पी.एम. जैन
September 7, 2019
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जैनधर्म के अनुयायी अपने भगवंतों के समक्ष नित्य करते हैं आलोचना पाठ का गुणगान -:पी.एम.जैन(ज्योतिष विचारक) दिल्ली मो. 9718544977

जैनधर्म के प्रथम तीर्थंकर भगवान ऋषभदेव जी के पुत्र👉 चक्रवर्ती राजा “भरत जी” के नाम से पहचाने जाने वाला हमारा देश “भारत” से लेकर दुनियाभर में एक कहावत सदियों से प्रचलित है कि “हम तर्क-कुतर्क को लेकर किसी दूसरे जीव की ओर अपनी अंगुली उठाते हैं तो स्वहस्त का सांकेतिक एंगल इस भाँति बनता है जिसमें 4 अंगुलियों में से 3 अंगुलियाँ, अंगुली उठाने वाले की ओर ही गलत-सही का संकेत देता है! लेकिन जैन सिद्धाँत नीचे लिखा संदेश देता है जिसको मन की शुद्धि के लिए रोज पढ़ना चाहिए और जीवन में बदलाव के लिए बार-बार प्रयास न करते हुए एक बार सदाबहार के लिए दृड़ता के साथ स्वहित के प्रति स्वयं में बदलाव लाना चाहिए | यह आलोचना पाठ दूसरो की नहीं बल्कि👉भगवान का गुणगान करते हुए भगवान के समक्ष खुद की निजनिन्दा है जो जैन समुदाय की उन्नति का प्रमुख रहस्य है! इसीलिए जैनधर्म के अनुयायी अपने भगवंतों के समक्ष नित्य करते हैं आलोचना पाठ का गुणगान! आप भी नित्य पढ़िए और मनशुद्धि हेतु निम्नलिखित तथ्यों पर ध्यान पूर्वक विचार कीजिए👇👇

आलोचना-पाठ👇👇👇

बंदों पांचों परम-गुरु, चौबीसों जिनराज।

करूं शुद्ध आलोचना, शुद्धिकरन के काज ॥

सुनिए, जिन अरज हमारी, हम दोष किए अति भारी।

तिनकी अब निवृत्ति काज, तुम सरन लही जिनराज ॥

इक बे ते चउ इंद्री वा, मनरहित सहित जे जीवा।

तिनकी नहिं करुणा धारी, निरदई ह्वै घात विचारी ॥

समारंभ समारंभ आरंभ, मन वच तन कीने प्रारंभ।

कृत कारित मोदन करिकै, क्रोधादि चतुष्ट्‌य धरिकै॥

शत आठ जु इमि भेदन तै, अघ कीने परिछेदन तै।

तिनकी कहुं कोलौं कहानी, तुम जानत केवलज्ञानी॥

विपरीत एकांत विनय के, संशय अज्ञान कुनयके।

वश होय घोर अघ कीने, वचतै नहिं जात कहीने॥

कुगुरुनकी सेवा कीनी, केवल अदयाकरि भीनी।

याविधि मिथ्यात भ्रमायो, चहुंगति मधि दोष उपायो॥

हिंसा पुनि झूठ जु चोरी, पर-वनितासों दृग जोरी।

आरंभ परिग्रह भीनो, पन पाप जु या विधि कीनो॥

सपरस रसना घ्राननको, चखु कान विषय-सेवनको।

बहु करम किए मनमाने, कछु न्याय-अन्याय न जाने॥

फल पंच उदंबर खाये, मधु मांस मद्य चित्त चाये।

नहिं अष्ट मूलगुण धारे, विषयन सेये दुखकारे॥

दुइवीस अभख जिन गाये, सो भी निस दिन भुंजाये।

कछु भेदाभेद न पायो, ज्यों त्यों करि उदर भरायौ॥

अनंतानु जु बंधी जानो, प्रत्याख्यान अप्रत्याख्यानो।

संज्वलन चौकड़ी गुनिये, सब भेद जु षोडश मुनिये॥

परिहास अरति रति शोग, भय ग्लानि तिवेद संजोग।

पनवीस जु भेद भये इम, इनके वश पाप किये हम॥

निद्रावश शयन कराई, सुपने मधि दोष लगाई।

फिर जागि विषय-वन भायो, नानाविध विष-फल खायो॥

आहार विहार निहारा, इनमें नहिं जतन विचारा।

बिन देखी धरी उठाई, बिन सोधी बसत जु खाई॥

तब ही परमाद सतायो, बहुविधि विकल्प उपजायो।

कुछ सुधि बुधि नाहिं रही है, मिथ्या मति छाय गई है॥

मरजादा तुम ढिंग लीनी, ताहूंमें दोष जु कीनी।

भिन-भिन अब कैसे कहिये, तुम खानविषै सब पइये॥

हा हा! मैं दुठ अपराधी, त्रस-जीवन-राशि विराधी।

थावर की जतन ना कीनी, उरमें करुना नहिं लीनी॥

पृथ्वी बहु खोद कराई, महलादिक जागां चिनाई।

पुनि बिन गाल्यो जल ढोल्यो, पंखातै पवन बिलोल्यो॥

हा हा! मैं अदयाचारी, बहु हरितकाय जु विदारी।

तामधि जीवन के खंदा, हम खाये धरि आनंदा॥

हा हा! मैं परमाद बसाई, बिन देखे अगनि जलाई।

ता मधि जे जीव जु आये, ते हूं परलोक सिधाये॥

बींध्यो अन राति पिसायो, ईंधन बिन सोधि जलायो।

झाडू ले जागां बुहारी, चिवंटा आदिक जीव बिदारी॥

जल छानी जिवानी कीनी, सो हू पुनि डार जु दीनी।

नहिं जल-थानक पहुंचाई, किरिया विन पाप उपाई॥

जल मल मोरिन गिरवायौ, कृमि-कुल बहु घात करायौ।

नदियन बिच चीर धुवाये, कोसन के जीव मराये॥

अन्नादिक शोध कराई, तामे जु जीव निसराई।

तिनका नहिं जतन कराया, गलियारे धूप डराया॥

पुनि द्रव्य कमावन काजै, बहु आरंभ हिंसा साजै।

किये तिसनावश अघ भारी, करुना नहिं रंच विचारी॥

इत्यादिक पाप अनंता, हम कीने भगवंता।

संतति चिरकाल उपाई, बानी तैं कहिय न जाई॥

ताको जु उदय अब आयो, नानाविधि मोहि सतायो।

फल भुंजत जिय दुख पावै, वचतै कैसे करि गावै॥

तुम जानत केवलज्ञानी, दुख दूर करो शिवथानी।

हम तो तुम शरण लही है, जिन तारन विरद सही है॥

जो गांवपति इक होवै, सो भी दुखिया दुख खोवै।

तुम तीन भुवन के स्वामी, दुख मेटहु अंतरजामी॥

द्रोपदि को चीर बढ़ायो, सीताप्रति कमल रचायो।

अंजन से किये अकामी, दुख मेटहु अंतरजामी।

मेरे अवगुन न चितारो, प्रभु अपनो विरद निम्हारो।

सब दोषरहित करि स्वामी, दुख मेटहु अंतरजामी॥

इंद्रादिक पद नहिं चाहूं, विषयनि में नाहिं लुभाऊं।

रागादिक दोष हरीजै, परमातम निज-पद दीजै॥

दोहा👉दोषरहित जिन देवजी, निजपद दीज्यो मोय।

सब जीवन को सुख बढ़ै, आनंद मंगल होय॥

अनुभव मानिक पारखी, ‘जौहरि’ आप जिनंद।

यही वर मोहि दीजिए, चरण-सरण आनंद ॥

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