जैनधर्म कोई धर्म-विशेष नहीं है, न यह केवल केवल जैनियों के लिए ही है। यह तो एक विचार-धारा है,संपूर्ण मानवता के लिए जीवन-आधार है। जन-मानस की सुविधा के लिए इसको धर्म कहने लगे हैं। यह किसी भगवान के बारे में बात नहीं करता, यह सभी मुक्त आत्माओं का सम्मान करता है। जैन विचारधारा पूरी तरह से भावना और कर्म पर आधारित है, इस विचारधारा को अपनाने के लिए किसी कुल या जाति विशेष में जन्म लेना अवश्यक नहीं । कर्म से कोई भी जैन हो सकता है। इसको धर्म का नाम देने से इसकी व्यापकता को संकुचित करना होगा।👉धर्ममंचों से विलाप होता रहता है कि जैनियों कि जनसंख्या कम होती जा रही है। जनसंख्या में वृद्धि समाधान नहीं, जनसंख्या वृद्धि तो और अनेक समस्याएँ उत्पन्न कर देगी। जब जैन कहलाने वाले ही पूर्णतया इस मानवतावादी विचारधारा को पालन करने में उदासीन हो कर इसके मूल्य को नहीं समझ रहे हैं तो अन्य कैसे समझ सकते हैं? उत्तम निराकरण यह होगा कि हम जो जैनधर्म के मूल सिद्धांतों का पालन करने और समझने के लिए जैन के रूप में पैदा हुए हैं एकजुट हो, मिलकर इस विचारधारा के प्रति आचरण करें। उस आचरण से प्राप्त सकारात्मक उपलब्धियां निशिचित ही अन्य लोगों को इसे अपनाने को आकर्षित करेंगी। जैनधर्म के प्रति उनकी आस्था को बढ़ायेंगी।👉नई पीढ़ी हमारी धार्मिक प्रक्रियाओं की कट्टरता से तेज दौड़ती दुनिया के साथ एडजस्ट न कर पाने से विमुख हो रही है। उसे समन्वय का मार्ग सुझाया जाने की आवश्यकता है। जटिलता के स्थान पर भावनात्मक आस्था-भाव का समावेश करना होगा। इन दिनों हमने जैनधर्म में अपनी असली भावना खो दी है। पूजा-अर्चना पद्धिति भी विराग से हट कर राग की ओर आकर्षित हो रही है। पञ्चपरमेष्ठि के अतिरिक्त अन्य कई में आस्था संजोनी शुरू करदी है। भक्ति-भाव भक्ति-रस में बदल गया है।👉सबसे अधिक संवेदनशील बिन्दु यह है कि अपनी महत्वाकांक्षा और कुछ निहित प्रयोजनों से वशीभूत हो हम एक से अनेक हो गए हैं। उप-श्रेणियों में विभाजित हो चुके हैं। शाखाओं का पोषण करने में हम जड़ों को खोखला करते जा रहे हैं। अगर जड़ें ही कमजोर हो जाएंगी तो शाखाओं और तनों का अस्तित्व कहाँ से बचेगा? रचनात्मक ऐजेंडा विहीन जितने संगठन और संस्था बन रही हैं उतने ही हम बिखरते जा रहे हैं। इसी बिखराव और अलगाव के कारण हम, हमारे तीर्थ,संत सभी हर ओर से असुरक्षित होते जा रहे हैं। हमें अपने अस्तित्व बचाने के लिए गंभीरता से एकजुट प्रयास करने चाहिए। अपने अलग अलग झंडों के डंडे ऊंचे न कर सिर्फ अपने धर्म का, विचारधारा का झण्डा बुलंद करना होगा। 👉एक सुलझा हुआ अध्यापक ही बेहतर शिक्षा और संस्कार दे सकता है। हमारे धर्म-गुरु ही हमें ऐसा मार्ग-दर्शन दे सकते हैं कि हम सभी हर दुराग्रह, पूर्वाग्रह को छोड़ पंथवाद, आमनाय से ऊपर उठ कर मंज़िल तक जाने वाले रास्तों को महत्व न दे कर केवल और केवल उस मंज़िल को जो👇 अहिसा,अनेकांत, अपरिग्रह,परस्परोपग्रहो जीवनाम, क्षमा पर आधारित है को पाने का उपक्रम करें। अपने तीर्थंकरों के अनुगामी बनें,अनुयायी नहीं।👉 मंदिर, अनुष्ठानों के लिए नीलामी के स्थान बन गए हैं। पुराने तीर्थ उपेक्षित पड़े हैं लेकिन अधिक से अधिक नए मंदिरों का निर्माण एक अधिमान्य बात बन गई है। जैन समाज एक धनाढ्य समुदाय है। दान देना उसके स्वभाव में रचा-बसा है। वर्तमान में मंदिरों और अनुष्ठानों को दान करना धर्म का एकमात्र अर्थ/विकल्प बन गया है। निर्वाण को छोड़ हम जाने किस मंतव्य हेतु निर्माण में जुट गए हैं। वर्तमान परिपेक्ष्य में ज़रुरत है कि दान का उपयोग भव्य आयोजनों में न किया जाकर अपनी प्राचीन धरोहरों की सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, जैसे जन-हितकारी रचनात्मक प्रयोजनों के लिए एवं समाज के आर्थिक अभाव से जूझ रहे वर्ग के हितार्थ ही किया जाये।👉डा.निर्मल जैन (सेवानिवृत्त “जज” नई दिल्ली)