धार्मिक और नैतिक सत्ता जब भौतिक सत्ता बन जाती है तब इसके दूरगामी दुष्परिणाम होते हैं। नैतिकता के कथित ठेकेदारों, धर्मगुरुओं, बाबाओं और मठाधीशों के पास अपार संपत्ति जमा हो जाती है और उनके भक्त अंधभक्त हो जाते हैं। धर्म-नायक बहुत सी मानसिक विकृतियों के शिकार हो मानने लगते हैं कि संसार की हर वस्तु पर इनका अधिकार होना चाहिए।
धर्म द्वारा नैतिकता को कब्जा लेना, आधुनिक दुनिया की सबसे बड़ी त्रासदी है।-आर्थर सी. क्लार्क
ऐसे धर्मनायक, धर्माधिकारी के बर्चस्व के कारण धर्म की सत्ता सिर्फ आध्यात्मिक नहीं रह जाती, उसकी एक भौतिक सत्ता भी विकसित हो जाती है। तब परिवर्तन यह होता है कि -ईश्वर या अंतर्चेतना से व्यक्ति का रिश्ता टूट जाता है। बिचौलिये उसके निर्णयों पर हावी हो जाते हैं। ये बिचौलिये ही बताने लगते हैं कि धर्म क्या है और क्या नहीं है? धीरे-धीरे धर्म किसी पंथ, संप्रदाय या गुरु की व्यक्तिगत संपत्ति हो जाता है। और तब जन्म होता है इन सब के अनुयाइयों की अंधश्रद्धा का। अंधश्रद्धा अर्थात बिना विचार-विवेक के किसी भी शक्ति में आस्था करके उसे प्राप्ति के उन्माद में बिभिन्न क्रिया-कलापों में लीन हो जाना। दूसरे शब्दों में भक्ति में अंधविश्वास और आडंबर को ही आधार मानना।
इस तरह की अंधश्रद्धा या अंधानुकरण सिर्फ धर्म के क्षेत्र में ही नहीं राजनीति और सामाजिक क्षेत्र में भी दिखाई देती है। मैं सबसे अच्छा, मेरा नेता सबसे अच्छा, मेरा दल या संगठन सबसे अच्छा -इस भावना से ही समाज में आक्रोश, हिंसा और अशांति पैदा होती है। मनोवैमनस्य स्थायी रूप ले लेता है। सांप्रदायिकता भी इसी अहंकार से पैदा होती है। यह बहुत ही आवश्यक है कि लोग अंधश्रद्धा, अंधानुकरण के खतरनाक नतीजों पर गंभीरता से सोचें और अपनी विचार-पद्धति को वैज्ञानिक रूप दें। अन्यथा ना तो राष्ट्र निर्माण होगा न ही विकास संभव होगा। विश्व-शांति का रास्ता भी इधर से ही हो कर जाता है।
इस अंधश्रद्धा के प्रसार में आधुनिक शिक्षा पद्धिति भी सहायक बनती है। इन दिनों शिक्षा क्षात्रों को सिर्फ रेस के लिए तैयार कर रही है। प्रतियोगिताओं में छात्र घोड़े की तरह दौड़ते हैं। यह शिक्षा सिखाती है भागते जाओ, भागते जाओ। यह मिलेगा, वह मिलेगा। लेकिन कहीं यह नहीं बताती कि जब कभी भागते-भागते गिर पड़े तो क्या करना है, कैसे खुद को संभालना है? जब गिरने का समय आता है तो संभलने के लिए इधर-उधर सहारे खोजने लगते हैं। लेकिन इस भोगवादी दुनिया में कौन किसका सहारा बनता है? तब निराश हताश हो वो ऐसे ही धर्म के नाम पर दुकान खोले हुए पंडित, मौलवी के धार्मिक कर्मकांड, आडंबर के चक्रव्यूह में फंस जाता है। जो कुछ क्रियाओं को पूरी करने के साथ आश्वासन देता है कि सब ठीक हो जाएगा। धार्मिक क्रियाएँ चलती रहती हैं। पंडित, मौलवी की जेबें भरती जाती है। लेकिन अंत में हाथ में बहुत कुछ खोने के बाद भी मिलती है केवल निराशा।
एक और कारण यह भी है कि -शिक्षित मध्यवर्ग भविष्य को लेकर सबसे ज्यादा असुरक्षित और भयभीत रहता है। कम समय में बहुत कुछ पाना चाहता है और खोने से डरता है। ऐसे में वो बहुत जल्दी ही अधिक पाने और पाया हुआ खो न जाए के लोभ में धार्मिक चमत्कारों के प्रपंच में फंस जाता है। ऐसे अंधानुकरण के कभी-कभी बड़े भयंकर परिणाम सामने आते हैं। धन की हानि तो होती है प्राणों पर भी आ बनती है। धर्म का यह कृत्रिम सम्मोहन इतना तीव्र होता है की सोचने समझने की सारी शक्ति हर लेता है।
धर्माधिकारी यह धारणा बैठा देते हैं कि मनुष्य धर्म को धारण नहीं करता। बल्कि सर्वशक्तिमान की दैवी शक्तियों से युक्त धर्म स्वयं इस चराचर जगत को अपने भीतर समाए रहता है, वही इसे चलाता है। दुनिया धर्म पर टिकी है ऐसा वे दावा करते हैं। उनके सम्मोहन के मायाजाल में फंसा प्राणी यह भूल जाता है कि दुनिया जब धर्म पर टिकी है, वही इसे चलाता है तो संसार में घोर असमानता, रोग, शोक, जन्म-मृत्यु, भूख-अकाल जैसी घटनाएं क्यों हैं? धर्म तो कभी निष्ठुर नहीं हो सकता। यदि धर्म ही सब कुछ है तो मनुष्य के विवेक की भूमिका क्या होगी? उसका क्या औचित्य रह जाएगा? धर्म ईश्वर में है या ईश्वर ही धर्म है तो जो लोग धर्म को नहीं मानते उनका क्या? बहुत आवश्यक हो गया है कि आस्था को विवेक से, धर्म को अध्यात्म से स्थानापन्न कर दिया जाए।