उसे चोरी के अपराध में 4 साल कि सजा हुई थी। जेल में पहले ही दिन से जेलर उसके व्यवहार से हतप्रभ था। वह रोज सुबह उठ जाता और धीमे एवं मधुर कंठ से प्रार्थना करता। शांत रहता। भोजन से पहले और बाद में भगवान को धन्यवाद देता। जेलर ने उसके सदव्यवहार और धार्मिक प्रव्रत्ति से प्रभावित हो उसकी सजा कम किये जाने की संस्तुति शासन को भेज दी। परिणाम-स्वरूप एक दिन उसकी बाकी सजा माफ़ किये जाने का आदेश आ गया। जेलर ने शाम को उस कैदी को बुलाकर कहा कि –“अच्छे चाल-चलन के कारण कल तुम जेल से रिहा हो जाओगे।“ कैदी सुन कर खुश हुआ और जेलर को धन्यवाद दिया।
अगली सुबह देर दिन तक वह खर्राटे भर कर सोता रहा था। आश्चर्यचकित जेलर ने उसे जगा कर पूछा -आज तुम जल्दी नहीं उठे और प्रार्थना भी नहीं की? कैदी मुस्कान के साथ बोला – जिस काम के लिए मैं प्रार्थना करता था वह पूरा हो गया अब प्रार्थना कि क्या जरूरत है?
कैदी तो जेल से रिहा हो गया। पर उस का उत्तर एक प्रश्नचिन्ह छोड़ गया। हमारे जीवन में जो भगवान,प्रार्थना या धर्म है तो हमने उसे क्या स्थान दे रखा है?भोजन है , जो शरीर की आवश्यकता है जिसको रोज लेना ही होता। या बीमारी आने पर मजबूरी में ली गयी दवा की तरह, अथवा उस आक्सीजन की तरह जिसको हर स्थान, हर क्षेत्र चाहे व्यापर हो, परिवार हो, राजनीति हो लेते रहना हमारा स्वभाव बन गया है।
वास्तविकता तो यह है कि अब हम प्रार्थना को अपने मतलब के लिए इस्तेमाल करने लगे हैं। प्रार्थना,साधना का तो तात्पर्य है- अपने दोष, दुर्गुणों का पूर्णत: परिशोधन, परिमार्जन। प्रार्थना से व्यवहार और अंतरंग भी बदलना चाहिए, हमारी वृत्तियां भी बदलनी चाहिए। पूजा करने और अनुष्ठान करने का एक महत्व होता है क्योंकि वे ईश्वर के समक्ष एक शपथ ग्रहण करते हैं । लेकिन हमें ये अनुष्ठान भगवान के साथ छल करने या उन्हें वश में करने के लिए नहीं करने चाहिए ।
हम मंदिर जाकर पूजा करते हैं, करवाते है,पंडितजी को दक्षिणा देते हैं। यह भक्ति नहीं है। पंडितजीतो ठहरे दक्षिणा के भोगी। जैसी दक्षिणा वैसी पूजा, वैसाही आशीर्वाद। पूजा में हमें भक्ति कहां याद रहती है।ईश्वर से असली संवाद तो मौन में ही होता है, जो सभीभाषाओं में समाविष्ट है। अभी तो यह संबंध ज्यादातरएक ऐसे दुभाषिए के जरिए होता है जिसे न तो देवी–देवताओं से मतलब है और न अपने जजमानों से। उसकाएकमात्र सरोकार पंडिताई के अपने व्यवसाय से होता है।इन का उद्देश्य ईश्वर भक्ति नहीं, बाजार भक्ति होता है।ईश्वर पर बोलने का वो पैसा लेते हैं। ईश्वर उनके लिए एकप्रॉडक्ट है ताकि माल बिकता रहे और दुकानें चलती रहें।ईश्वर से कहीं ज्यादा सुखी तो ये ही लगते हैं।
हम धार्मिक स्थल पहुंचकर धर्मात्मा होने कालेबल जरूर लगवा लेते हैं। किंतु वास्तविक धर्मात्माअपने अंतरमन में आंकने एवं आत्मा की आवाज कोसुनने तथा अमल में लाने के बाद ही बनते हैं। कर्मों केफल की फाइल कंप्यूटर में फीड की गयी कोई फाइल तोहै नहीं जो प्रार्थना रूपी डिलीट बटन दबानें से एक बारमें ही डिलीट हो जाएगी। प्रार्थना का अर्थ है खुद को जानना और शांति पाना, मंदिर में अगरबत्ती, फल–फूल चढ़ाने से प्रार्थना–पूजा संपन्न नहीं होती बल्कि खुद को जानने और शांति के अलावा मन में किसी भी प्रकार के नकरात्मक भाव को जगह ना देना ही पूजा है। दरअसल, बात तो यह हैकि अब हम धर्म को, प्रार्थना को अपने मतलब के लिएयूज करने लगे हैं। ईश्वर को अपनी स्वार्थ सिद्धि का माध्यम समझने लगे हैं। ईश्वर का निवास न तो प्रतिमा मेंहोता है और न मंदिरों में। भाव की प्रधानता के कारणही पत्थर, मिट्टी और लकड़ी से बनी प्रतिमाएं भी देवत्वको प्राप्त करती हैं, अतः भाव की शुद्धता जरूरी है।
आज हम सब धर्म के मामले में ही नहीं अपनेपरिवार या समाज में जो कुछ कर रहे हैं, वह भावना कीवजह से नहीं है, वह सोच–विचार का फल है। भाव होताहै, और विचार किया जाता है। भाव हृदय से स्वत:निकलता है। विचार बुद्धि का विषय है। ईश्वर न लकड़ीकी मूर्ति में होता है, न पत्थर की मूर्ति में, न ही मिट्टी कीमूर्ति में। वो तो भाव में निवास करता है। भाव ही भक्तिकी मूल चेतना है। इसलिए हमारी प्रार्थना में भाव होना चाहिए, स्वार्थ नहीं| 👉डॉ. निर्मल जैन (Ex. जज)