छोटी-छोटी बदलियों से कहीं सूर्य-किरण धुंधली हुई हैं👉डा. निर्मल जैन (से.नि.जज)
कुछ दिनों पहले भारतीय राजनीतिक-पटल पर एक नारा बड़े जोर-शोर से वायुमंडल में तैर रहा था-चौकीदार चोर है। जब यह नारा अपने चरम पर पहुंचा तो जनमानस ने ही नहीं देश की सर्वोच्च अदालत ने भी उसके पीछे का छिपा सत्य सबके सामने ला दिया। सब जान गए कि चौकीदार नहीं! चोर कहने वाले ही खुद कितनी ही चोरियों में फंसे हैं और अपनी चोरियों से ध्यान बटाने के लिए यह षड्यंत्र था।
राजनीति की यह पगडंडी धर्मक्षेत्र में तो और चौड़ा रास्ता बन गयी है। यहाँ भी इससे पहले कि कोई कमियां उजागर ना करदे कमियों को उजागर करने वालों पर उंगली उठानी शुरू कर दी जाती है। उन्हें विधर्मी, नास्तिक और पापी तक की विभूतियों से विभूषित कर दिया जाने लगता है। लेकिन सच कहां छुपता है? छोटी-छोटी बदलियों से कहीं सूर्य-किरण धुंधली हुयी हैं।
कोई कृत्य पाप है या पुण्य यह भीतर की भाव-दशा से तय होता है कर्म से नहीं। ऊपर-ऊपर से कर्म एक जैसे दिखाई पड़ते हैं, किंतु भीतर की भाव-दशा,इरादा क्या है, दृष्टि क्या है इन सबसे उसका स्वरूप निर्भर करेगा। प्रकटतय: हम सभी जानते हैं कि हमारे मन्दिरों,प्रतिष्ठानों, समाज, तीर्थक्षेत्रों में क्या कुछ हो रहा है? हमारे संसाधनों का किस रूप में और कहाँ उपयोग किया जा रहा है?
किसी विशेष प्रयोजन के लिए न्यस्त किए धन का दुर्विनियोग, दुरुपयोग तथा किसी संस्था, देवालय की धन-संपत्ति का अनावश्यक, अनुपयोगी मदों में प्रकृति के नियमों के विपरीत अथवा उसके विरुद्ध व्यययन यह सब या तो पाप हैं या अपराध हैं। इतना ही नहीं सब कुछ देखते हुये भी यह सोच कर शांत रहना कि हमें क्या लेना-देना। हम क्यों बुराई बाँधें। जो स्वीकार्य नहीं है उसके प्रति मौन भी पाप क्रिया में सहायक होना है।मौन का परिणाम होता है कि जो कुछ नहीं होना चाहिए वह और तीव्र गति से होता चला जाता है।
नदी स्वतंत्र है, पर अपनी मर्यादाएं लांघ कर बहना शुरू करे तो समझ जाना है कि अपने पथ से भटक विनाश की ओर चल पड़ी है। अपवादों को छोड़ यही हाल आज के हमारे कुछ कर्णधारों का है। यदि कार्यप्रणाली स्वतंत्र है तो किसी को कोई सामाजिक खतरा नहीं है, पर स्वच्छन्दता, उच्छृंखलता,निरंकुशता को समाज नजर-अंदाज करके पूर्ण सम्मान दे तो ऐसा सोचने वालों की उम्मीद की अतिशयोक्ति है।
सही क्या है, गलत क्या है, पुण्य क्या है पाप क्या है? इसकी कोई सार्वभौम और सर्व-स्वीकार्य परिभाषा नहीं हो सकती। प्रकृति ने पाप-पुण्य का मापक सिर्फ एक धर्म बनाया है -मानवता का। बाकी धर्म बनाये हैं इंसान ने। इंसान के पाप-पुण्य के नियम समय के साथ बनते बिगड़ते रहे हैं। समाज में उच्च पदस्थ ज्ञानी लोगों ने अपने वर्ग के लाभ के लिए अलग नियम बनाये और कुछ को ऊपर न उठने देने के लिए अलग नियम बनाये। यानि पाप और पुण्य को भिन्न-भिन्न रूप में परिभाषित किया।
पाप, सभी धर्मो में एक साथ और एक रूप के अर्थ में लागू हो ऐसा भी कोई मापदण्ड नहीं है।हिंसा करना पाप समझा जाता है परन्तु यह भी कहा गया है कि वैदिक हिंसा हिंसा नहीं होती। मांसाहार मत करो लेकिन पशु-बलि दे सकते हो। दलित से दूर रहो लेकिन उसके पैसे और महिला से कोई परहेज नहीं। किसी की विचारधारा में एक चींटी को भी हानि पहुंचाना बहुत बड़ा दोष है लेकिन कोई बलि देकर ही इबादत का सबाब लेता है।
इन सबसे पर एक निर्दोष परिभाषा हो सकती है कि हर वो नेतिक कार्य जिससे जीव मात्र का, प्रकृति का भला हो वो पुण्य बाकी पाप। संभवतया जिस भी क्रिया से किसी को अनिष्ट होता है उसी का नाम आध्यात्मिक,धार्मिक जगत में पाप है और सामाजिक, व्यवहार जगत में उसे अपराध कहा जाता है। पाप मन-वचन और काया तीनों से किया जा सकता है। ऐसा सत्य जिससे किसी की अनिष्टकारी प्रवृत्ति और दुर्बलतायेँ उजागर होती हैं, उन लोगों की नज़रों में पाप बन जाता है। पाप और पुण्य दो ऐसी धारणाये है जिन के आधार पर धर्म और मजहब टिके होते है। इसीलिए पाप-पुण्य की सोच हर एक को घुट्टी की तरह बचपन से ही पिला दी जाती है जिसका असर आजीवन मस्तिष्क में अमिट रहता है।