आपकी अदालत में रजत शर्मा के एक सवाल के जवाब में तारिक फतेह अली की बोली गई यह लाइनें मुझे अंदर तक झकजोर गईं -आजकल दुनिया में दो इस्लाम चल रहे हैं। *एक इस्लाम है अल्लाह का और दूसरा इस्लाम है मुल्लाह का।* उनका यह बेबाक कथन मेरे लिए एक सवाल छोड़ गया। धर्म की यह दोहरी पद्धिती सिर्फ इस्लाम तक ही सीमित नहीं है। हम जिस धर्म को आस्था पूर्वक पालन कर रहे हैं उसमें भी धर्म के दो रूप हो गए हैं? एक उस *वीतरागी का धर्म*
-जिसने सब कुछ उपलब्ध होते हुए भी स्व-पर-कल्याण के लिए त्याग दिया और संसार के आकर्षण, कोलाहल और अशांति से दूर कहीं एकांत निर्जन वन, पर्वत श्रंखला, शिखर पर जाकर मुक्ति-लक्ष्मी को वरण करने आत्म-ध्यान में लीन हुए। -दूसरी ओर -ये *कोलाहल, कर्म-कांड और आडंबर से सजी-धजी ऐश्वर्य-पूर्ण जटिल धार्मिक प्रक्रियायें* जिन्हे धर्म के नाम पर थोपा जा रहा है। *(तारिक फतेह अली के शब्दों में मुल्लाहों का मजहब।)*
लगभग 76 साल पहला मुझे एक प्रसंग याद आया। जब पहली बार स्कूल गया तो मास्टर साहब ने तख्ती पर पेंसिल से कटकोरे काढ़ कर उस पर स्याही से मुझे लिखकर अभ्यास करने को कहा। कुछ ही दिनों में मैं बिना कटकोरों और बिना मास्टर साहब की मदद से वर्णमाला के अक्षर और अंक लिखने में निपुण हो गया। लेकिन आज तो हम कई दशकों तक रोज धार्मिक क्रियाएँ करने के बाद भी *(अपने मास्टर) पुजारी, पंडित के कटकोरों के बिना भक्ति का एक अक्षर भी अकेले लिख पाने और बोल पाने में सक्षम नहीं हुए।*
कैसा आश्चर्य है? जब हम अबोध थे तब हम कितने क्रियाशील थे और अब तो हमारा हर तरह से हर विधा में विकास, विस्तार हो चुका है। तब धार्मिक क्षेत्र में ही हम क्यों वहीं की वहीं रुके पड़े है? क्या यह स्थिति हमारी *वर्तमान श्रद्धा, आस्था, धार्मिक निष्ठा, समर्पण और विशेषकर पद्धति पर प्रश्न चिन्ह नहीं लगाती? शायद हम प्रार्थना करते ही नहीं, प्रार्थना के आवरण में मांगते रहते हैं*।
हम किसी भी रास्ते पर ड्राइवर के साथ अगर 10 बार भी जाएं तो हमें रास्ते याद नहीं होते। लेकिन एक बार अगर खुद चला कर गाड़ी ले जाएं तो सारे सिग्नल, सारे मोड़ बड़ी अच्छी तरह से हमारे मन मस्तिष्क में अंकित हो जाते हैं। उस अंतिम-यात्रा पर सब को अकेले ही जाना है। उस में हमारे साथ यह ड्राइवर रूपी मध्यस्थ, पुजारी, पंडित, कोई नहीं बस हम ही होंगे। जब हम जीते जी उस अंतिम यात्रा के मार्ग पर हमेशा *इन्हीं मध्यस्थों की बैसाखियों पर* अपने बुद्धि-विवेक का प्रयोग किए बिना आख बंद किए चलते रहे, तो क्या उस अनजानी, अनदेखी राह से होकर अकेले हमारा अंतिम लक्षय पर पहुँच पाना संभव है ? कदापि नहीं। क्योंकि कभी हमने *उस रास्ते को पहचानने की फिक्र की ही नहीं*।
*कभी उस वीतरागी से सीधा नाता जोड़ने का प्रयास किया ही नहीं*।
पूजा या प्रार्थना पूर्णतय: हमारी निजी मानसिक क्रिया है। अपने इष्ट का स्मरण उनकी अपार शक्ति, गुणों का चिंतन प्रार्थना है, पूजा है। उसके साथ संपर्क बनाने का सबसे सरल और आसान माध्यम है पूजा। लेकिन उसका धेय्य उन *तीर्थंकर के पुन्य और गुणों का स्मरण, भावपूर्ण अनुचिंतन* हो जो हमारी आत्मा मैं छिपे अशुभ भाव, विकार और पाप-मल को छुड़ा कर हमारे चित्त को निर्मल और पवित्र बनाते हैं।
पूजन-अर्चन रीति कोई भी हो पर वह मार्ग पूर्ण *अहिंसा का आडंबर रहित होना चाहिए*। क्योंकि हमारे
तीर्थंकर सारे सांसारिक आडंबरों को छोड़, अहिंसा के मार्ग पर चल कर ही इस पदवी पर प्रतिष्ठित हुए हैं*।
बिना भावना के उद्देश्य प्राप्ति सम्भव नहीं। भाव सदैव शब्दों का साथ नहीं दे पाते। यदि नहीं भी बोले तो भी कोई बात नहीं। अपने मन के भावों को प्रार्थना के अनुरूप रखें। भावना का पोषण करना आ गया तो प्रार्थना के शब्दों की भी आवश्यकता नहीं। यही प्रार्थना की सफलता का मूल है। मौन रहकर ही अपने अंतराल में उतरने वाले ईश्वर के दिव्य संदेशों प्रेरणाओं को सुना समझा जा सकता है।
*सुविख्यात विचारक* *जेम्स एलन*
अपनी कृति पावर्टी टू पीस में कहते हैं -समस्त शक्तियों में सर्वश्रेष्ठ शक्ति मौन की शक्ति है और जब यह उचित मार्ग में प्रयुक्त होती है तो उन्नति और अभ्युदय कारक होती है। एकाग्रता संपादन के लिए मौन से बढ़कर और कोई सरल उपाय है ही नहीं। *मौन हृदय की भाषा है*।
वाह्य क्रियाओं का अपने ऊपर प्रभाव ना होने देना, स्वयं को उनसे निरपेक्ष रख जगत से अप्रभावित होकर ही उस सर्वशक्तिमान की सर्वोत्तम पूजा-अर्चना प्रार्थना की जानी संभव है। तब *धर्मस्थलों में ध्वनि विस्तार देने का इतना आकर्षण क्यों? भक्ति का भक्ति रस के प्रति समर्पण किसलिए? *आत्मा से परम आत्मा बनने के बीच इतने कर्मकांड क्यों*?जिस को पाने के लिए मार्दव रहित मन में आर्जव-भाव प्रथम अनिवार्यता है उसकी राह इतनी क्यों उलझा दी गयी है?
*क्या हमारे यहाँ भी अल्लाह और मुल्लाह के दो धर्म अस्तित्व में हैं? डा. निर्मल जैन (से.नि.जज)