हम सामाजिक प्राणी है। समूह में रहना हमेशा से हम सबकी एक प्रमुख विशेषता रही है जो हमें सुरक्षा का एहसास कराती है। लेकिन आज जिस तरह से यह समूह एक उन्मादी भीड़ में बदलते जा रहे हैं उससे हमारे भीतर सुरक्षा कम बल्कि डर की भावना अधिक बैठती जा रही है। भीड़ अपने लिये एक अलग किस्म के तंत्र का निर्माण कर रही है, जिसे आसान भाषा में हम भीड़तंत्र भी कह सकते हैं।
किसी न कसी विशेष प्रयोजन के लिए लोगों की भीड़ सार्वजानिक एवं आमजन की संपत्ति में आग लगा कर या तोड़-फोड़ कर क्षति पहुंचाती है। मार्ग अवरुद्ध कर जन-साधारण की असुविधा का कारण बनती है। अगर इस भीड़ में से एक-एक आदमी को अलग करके पूछ जाये कि वे ऐसा करके क्यों जन धन की हानि कर रहे हैं उन्हें इससे कुछ मिलेगा? तो लगभग हर आदमी यही कहेगा नहीं इसमें उन्हें निजी तो कोई फायदा नहीं होगा। अधिकांश को तो यह भी मालूम नहीं होता की वे किस प्रयोजन हेतु यह सब कर रहे हैं।
फिर वे सारे लोग यह सब क्यों कर कर रहे हैं,क्योंकर हो रहा विनाश का तांडव? इसका एक ही उत्तर है कि उन अनगिनत आदमियों की भीड़ में शामिल हर एक आदमी चेतन रूप में नहीं था, वह सिर्फ भीड़ का एक हिस्सा था। भीड़ में व्यक्ति अपने में नहीं रह जाता वह उस भीड़ के बहाव में जिस तरफ को सब चले जा रहे हैं चलने लगता है। क्योंकि भीड़ सबको संक्रमित कर देती है।
आजकल बाज़ार-परस्त समाज में उपभोग ही चाहे वो पदार्थों का हो या सत्ता का मनुष्य की मनुष्यता का पैमाना बन गया है। नतीजन इंसान में नई ख्वाहिशें पनपती हैं, लेकिन वह उनको पूरा करने के संसाधन नहीं जुटा पाता। इस तरह इच्छाओं एवं उपलब्धियों के बीच का फ़ासला बढ़ता जाता है। ऐसे में अपेक्षित स्तर की भागीदारी नहीं निभा पाने वाला इंसान ख़ुद अपने पर शक करने लगता है और कम-से-कम अवचेतन मन से ख़ुद को अधूरा या कमतर मानने लगता है। ऐसे में तुरंत कुछ पा जाने के प्रलोभन में उद्देश्य की प्रसांगिकता या घटना के मर्म तक पहुंचे बिना, किसी ख़ास कारक या किसी विशेष परिणाम के पीछे भीड़ का हिस्सा बन जाता है।
लेकिन यह भी सोचने की बात है कि ऐसे साधारण-सामान्य लोग हिंसक बनने की हिम्मत कहाँ से जुटाते हैं? एक कुंठित और आक्रामक रोष से भरे विशाल जनसमूह के गठन की सोची समझी प्रक्रिया की रूपरेखा किसके द्वारा तैयार की जाती है? समान्यत: साधारण भेदभाव से असाधारण हिंसा तक पहुँचने के लिए किसी संगठित पहल की आवश्यकता होती है। इसी पहल द्वारा औसत भेदभाव करने वाले इंसान को प्रेरित कर उसे एक आक्रामक योद्धा बनाकर प्रतिशोध की खोज में भेजा जाता है।क्या यह राजनीति की कोई नई चाल है? या हमारे सामाजिक रिश्तों का ताना-बाना ही उघड़ रहा है? यह भी संभव है कि किसी निहित स्वार्थ या सत्ता प्राप्ति के लिए नए-पुराने सामाजिक भेदों और भेद-भावों पर आक्रोश की ताज़ा चादर चढ़ाकर किसी वर्ग और समुदाय-विशेष को जबरन घृणा, तिरस्कार व हीनता का पात्र बनाया जाता है।
कवियत्री सुभद्रा कुमारी चौहान के उद्गारों की एक पंक्ति -वीरों का कैसा हो बसंत? शायद “हिंसक भीड” और कुछ नहीं इस नवउदारवादी-युग के कुंठित, विकृत वीरों का बसंत तो है ही।
समस्याएँ और चुनौतियाँ महावीर, राम-रावण, कृष्ण-कंस काल से लेकर मार्क्स-माओ काल में भी रही हैं। उनका सही समाधान अनेकान्तिक द्रष्टिकोण एवं लोकतांत्रिक तरीकों से ही संभव है। भीड़ जिसका कोई पूर्ण-कालिक मुद्दा नहीं होता, वह कुछ पल के लिये एकत्रित होती हैं। जिसको अपने किये का परिणाम भी पता नहीं होता। उसमे न संवेदना होती हैं न ही मानवता । क्या ऐसी भीड़ की हमारी समस्याओं का समाधान कर सकेंगी? जरूरत है एक सशक्त और आधुनिक बनते भारत में उस भीड़ की जो मिलजुल कर अपने देश को नैतिकता की राह पर आगे ले जाने के लिये जुटे।
महावीर कहते हैं -अगर हमें अपना अस्तित्व चेतन रखना है तो भीड़ से अलग होकर सचेत रहना होगा। यहाँ सब की आँखें अपने-अपने स्वार्थपूर्ति के लिए क्रोध, लोभ,मोह की नींद से बोझिल हैं। हमें अगर अपने स्वत्व को बचाना है तो अपनी चेतना को जाग्रत बनाए रखना होगा। ना खुद सोना है न ही जो सो रहे है उनमे शामिल होना हैं। चेतना भीड़ से दूर है और भीड़ भी चेतना से दूर भागती है।
भीड़ जहां भी रहेगी चाहे धर्म की हो, कर्म की हो या किसी भी प्रयोजन के लिए जुटाई गयी हो राजनीति से संबंधित हो ही जाएगी। भीड़ को संचालित करना एक राजनीतिक कला है। सत्ता लोलुप राजनीति का नीति और नैतिकता से संपर्क टूट चुका है।भोली-भाली भीड़ के कथित नेताओं, प्रतिनिधियों को महत्व देते रहने का परिणाम ही है कि आए दिन कश्मीर से कन्याकुमारी तक अराजकता पैदा करने के कुत्सित प्रयास किए जा रहे हैं। इसलिए हमें हर किसी का आंख मूंदकर अनुसरण नहीं करना चाहिए। विश्वास भी उन पर करें जिनका विवेक सचेत है।