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धर्म-कर्म
Home›धर्म-कर्म›सूरिमंत्र अनेक और भ्रम भी अनेक

सूरिमंत्र अनेक और भ्रम भी अनेक

By पी.एम. जैन
January 3, 2020
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श्री जिनबिम्ब प्रतिष्ठा में प्रतिमाओं में मंत्र-संस्कार किये जाते हैं तभी वे पूज्य मानी जाती हैं। प्रत्येक कल्याणकानुसार मूर्तियों में मंत्र-संस्कार किये जाते हैं। किसी पंथ विशेष के पोषण या वर्जन करने के लिये मंत्रों में हीनाधिकता करना ठीक नहीं है।
प्रतिमाओं पर यों तो सभी संस्कार महत्वपूर्ण हैं, किन्तु उनमें भी अंकन्यास तथा सूरि मंत्र और भी महत्वपूर्ण हैं। अंकन्यास में 54 बीजाक्षर होते हैं तो प्रतिमा के विभिन्न अंगों पर अष्टगंध- चंदन-केशर को स्याही के रूप में लेकर स्वर्ण सलाका (सोने की कलम) से लिखा जाता है। ऐसे में अधिक छोटी प्रतिमाओं पर पूर्ण रूप से अंकन्यास किया जाना संभव नहीं होता है। क्योंकि उन अंगों में प्रतिमा के ऊपर के ओठ पर अलग नीचे के ओठ पर अलग न्यास किया जाता है। कितने ही कुशल लेखक आचार्य (मंत्र न्यास करने वाले मुनि/आचार्य) हों इतनी छोटी प्रतिमा पर 54 अक्षर लिख पाने में उन्हें मुश्किल होगी। फिर ये अंक न्यास सभी प्रतिमाओं पर करने के निर्देश हैं, किन्तु जब सात-आठ सौ प्रतिमाओं की प्रतिष्ठा एक साथ होती है, उस समय निश्चित ही मंत्र-न्यास करने वालों से चूक अवश्य होती होगी। मंत्र न्यास करने के अधिकारी मुनि/आचार्यों की संख्या कम होने पर तो समयाभाव के कारण पूर्ण विधि होना संभव ही नहीं है।
अलग अलग प्रतिष्ठा-पाठों में प्रतिष्ठा के मंत्रों में बहुत फेरबदल मिलता है। प्राणप्रतिष्ठा मंत्र में भी साम्य नहीं है। यहां अन्य विधियों की विसंगतियों को इंगित न कर सूरि मंत्र पर केन्द्रित होना है। सूरि मंत्र प्रायः गूढ मंत्र माना जाता था, इसलिए इसे प्रतिष्ठापाठों में नहीं लिखा जाता था, पम्परा से ही प्रतिष्ठाचार्यों को यह मंत्र मिलता था। अब तो अनेक मुद्रित प्रतिष्ठा-पाठ उपलब्ध हैं, उन्हीं के आधर पर हम सूरिमंत्र पर विचार करेंगे। साथ ही हमने पिछले 40 वर्षों के प्रकाशित प्रतिष्ठा-ग्रन्थों को देखा है, उनमें से एक भी प्रतिष्ठा ग्रन्थ शुद्ध रूप से उपलब्ध नहीं है। यदि किन्ही भी प्रतिष्ठाचार्य महोदय को पूर्ण परिशुद्ध प्रकाशित प्रतिष्ठा-ग्रन्थ की जानकारी हो तो कृपया केवल उसका नाम हमें लिख भेजें।
सूरि मंत्र:-
प्रतिष्ठेय प्रतिमा में सूरि मंत्र का सर्वाधिक महत्व है। सूरि मंत्र देने का अधिकारी कौन? इससे पूर्व यह विचार करना आवश्यक है कि सूरि मंत्र कितना प्रामाणिक है? अभी तो जितने प्रतिष्ठा-पाठ ग्रन्थ हैं, उतने ही सूरि मंत्रों में वैभिन्नता है। ऐसी स्थिति में जो विधानाचार्य अभी प्रतिष्ठा सीख रहे हैं वे किसका अवलम्बन लें? उनके पास यह प्रश्न सर्व प्रथम उपस्थित है।
1. प्रतिष्ठा-प्रदीप -पं. नाथूलालजी, इन्दौर द्वारा संकलित। द्वितीय संस्करण 1998, पृष्ठ-197
निर्देश- प्राणप्रतिष्ठा, और सूरिमंत्र आदि सर्वज्ञत्व प्राप्ति में मुख्य हैं। प्रत्येक प्रतिमा में प्राणप्रतिष्ठा, सूरिमन्त्र की क्रिया करना चाहिए।
‘‘ओं (‘ऐं’ यहां नहीं है) ह्रां ह्रीं ह्रौं ह्रः अ सि आ उ सा अर्हं ओं स्म्ल्व्र्यंू ह्म्ल्व्र्यंू ज्म्ल्व्र्यंू त्म्ल्व्र्यंू ल्म्ल्व्र्यंू व्म्ल्व्र्यंू प्म्ल्व्र्यंू भ्म्ल्व्र्यंू क्ष्म्ल्व्र्यंू क्म्ल्व्र्यंू ओं ह्रां णमो अरिहंताणं ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं ओं ह्रूं णमो आइरियाणं ओं ह्रौं णमो उवज्झायाणं ओं ह्रः णमो लोए सव्वसाहूणं अनाहत पराक्रमस्ते भवतु ते भवतु ते भवतु ह्रीं नमः।’’
पं. नाथूलालजी ने जयसेन-प्रतिष्ठापाठ का आश्रय लिया है, जिसमें सूरिमंत्र का स्पष्ट निर्देश है- ‘‘प्राणप्रतिष्ठाप्यधिवासना च, संस्कारनेत्रोद्धृति सूरिमंत्रा।’’
निर्देश- पहले 108 बार जाप कर लें। फिर प्रतिष्ठा में विद्यमान दिगम्बर मुनि से यह मन्त्र प्रतिमा को दिलावें।
2. प्रतिष्ठातिलक, श्री नेमिचन्द्र सैद्धान्तिकदेव द्वारा रचित, भावानुवाद- ग. आर्यिका ज्ञानमतीजी, सन् 2012,  (पृष्ठ- 357)
‘‘ओं (‘ऐं’ यहां नहीं है) ह्रां ह्रीं ह्रौं ह्रः असिआउसा अर्हं ओं (‘ह्रीं’ यहां अतिरिक्त है) स्म्ल्व्र्यंू ह्म्ल्व्र्यंू त्म्ल्व्र्यंू ल्म्ल्व्र्यंू (‘ज्म्ल्व्र्यंू’ यहां नहीं है) व्म्ल्व्र्यंू प्म्ल्व्र्यंू (‘म्म्ल्व्र्यंू’ यहां अतिरिक्त है) भ्म्ल्व्र्यंू क्ष्म्ल्व्र्यंू क्म्ल्व्र्यंू ओं ह्रां णमो अरिहंताणं, ओं ह्रीं णमो सिद्धाणं, ओं ह्रूं णमो आइरियाणं, ओं ह्रौं णमो उवज्झायाणं, ओं ह्रः णमो लोए सव्वसाहूणं अनाहत पराक्रमस्ते भवतु ते भवतु ते भवतु ह्रीं नमः।’’
इसमें कोई निर्देश नहीं है कि इस मंत्र को कैसे और कौन प्रयोग करेंगे। प्रतिष्ठा तिलक में यह मंत्र परिशिष्ट में संकलित किया गया है।
3. प्रतिष्ठारत्नाकर संकलन- प्रतिष्ठाचार्य पं. गुलाबचन्द्र ‘पुष्प’, टीकमगढ़, सन्-1992, पृष्ठ-377 ।
सूरिमंत्र (प्रथम)
‘‘ओं ह्रीं णमो अरिहंताणं णमो सिद्धाणं णमो आइरियाणं णमो उवज्झायाणं णमो लोए सव्वसाहूणं। चत्तारि मंगलं अरिहंता मंगलं सिद्धा मंगलं साहू मंगलं केवलि पण्णत्तो धम्मो मंगलं। चत्तारि लोगुत्तमा अरिहंता लोगुत्तमा सिद्धा लोगुत्तमा साहू लोगुत्तमा केवलि पण्णत्तो धम्मो लोगुत्तमो। चत्तारि सरणं पव्वज्जामि अरिहंते सरणं पव्वज्जामि सिद्धे सरणं पव्वज्जामि साहू सरणं पव्वज्जामि केवलि पण्णत्तं धम्मं सरणं पव्वज्जामि।’’
सूरिमंत्र (द्वितीय)
‘‘ओं परब्रह्मणे नमोनमः स्वस्ति स्वस्ति जीव जीव नंद नंद वर्धस्व वर्धस्व विजयस्व विजयस्व अनुसाधि अनुसाधि पुनीहि पुनीहि पुण्याहं पुण्याहं मांगल्यं मांगल्यं वर्धयेत् वर्धयेत् एवं जिन बिम्बे आत्मघटं वायुं पूरय पूरय आगच्छ आगच्छ संवौषट् तिष्ठ तिष्ठ ठः ठः चिरकाले नन्दतु वज्रमयां प्रतिमां कुरु कुरु ग्रौं ग्रौं स्वाहा स्वधा।’’
निर्देश:- इन दो मंत्रों में से एक का जाप 108 बार करें तथा आचार्य वही मंत्र प्रतिमा को देवें। सूर्यकला मंत्र, चंद्रकला मंत्र, प्राणप्रतिष्ठा मंत्र, सूरिमंत्र, सभी पं. मन्नूलाल जैन प्रतिष्ठाचार्य की हस्तलिखित डायरी से उद्धरित किये हैं।
4. प्रतिष्ठासारोद्धार -पं. आशाधरजी रचित वसुनंदि कृत प्रतिष्ठासार संग्रह का अवलम्बन लेकर रचित-संकलित।
इस प्रतिष्ठापाठ में सूरिमंत्र का न तो निर्देश है और न ही कोई सूरि मंत्र है।
5. प्रतिष्ठा विधि दर्पण – संकलन: गणधराचार्य श्री कुंथुसागरजी महाराज। खंड 2, पृष्ठ-213, सन् 1992 । इसमें प्रतिमा के बाएँ कान के लिए अलग और दाएँ कान में सुनाने के लिए अलग मंत्र है।
सूरिमंत्र- ‘‘ओं ह्रीं क्षूं ह्रूं सुं सः क्रौं ह्रीं ऐं अर्हं नमः सर्व अर्हन्त गुण भागी भवतु भवतु स्वाहा।’’
निर्देश- इस (उपरोक्त) मन्त्र को निर्ग्रन्थ मुनि प्रतिमा के सीधे कान में 21 बार बोलें।
मंत्र- ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ह्रां ह्रौं श्रीं श्रीं जय जय द्रां कलि द्राक्षसां भृंजय जिनेभ्योः ओं भवतु स्वाहा।
निर्देश- इस (उपरोक्त) मन्त्र दर्पण सामने रखकर प्रतिमा के उल्टे तरफ के कान में (बायें कर्ण में) निर्ग्रंथ मुनि पांच बार पढ़ें।
प्रकारांतर से सूरि मन्त्र- (प्रतिष्ठा विधि दर्पण पृष्ठ 213, ‘प्रतिष्ठा चन्द्रिका’ का सन्दर्भ)
‘‘ओं ह्रीं ऐं श्रीं भूः ओं भुवः ओं स्वः ओं माः ओं हाः ओं जनः तत् सबितु वरेण्यं गर्भो (अन्यत्र ‘भर्गो’ पाठ है) देवाय घी (‘धी’ होना चाहिए) मही धियोनिं असि आउसा णमो अरहंताणं अनाहत पराक्रमस्ते भवतु ते भवतु।’’
6. वसुनन्दी प्रतिष्ठा पाठ संग्रह – गणधराचार्य श्री कुंथुसागरजी महाराज द्वारा संकलित प्रतिष्ठा विधि दर्पण के द्वितीय खंड  के रूप में ‘वसुनन्दी प्रतिष्ठा पाठ संग्रह’ संकलित है। इसमें सूरि मंत्र नहीं है।
7.  अचेतन से चेतन -संकलन पं. बादामीलालजी पचैरी, मुंगाणा, सम्पादक- ब्र. स्नेह जैन, सागर
निर्देश- प्रतिमा के दोनों कानों में सूरि मंत्र विधान-
अरहन्त की प्रतिमा का मंत्र- ‘ओं ह्रीं क्षूं हूं (अन्यत्र ‘हं्रू’ है) सुं सः क्रौं ह्रीं ऐं अर्हं नमः सर्व अर्हन्त गुण भागी भवतु (अन्यत्र ‘भवतु’ दो बार है) स्वाहा।’’
निर्देश- इस मन्त्र को निर्ग्रन्थ मुनि प्रतिमा के सीधे कान में 21 बार बोलें।
मंत्र- ओं ह्रीं श्रीं क्लीं ह्रां ह्रीं (अन्यत्र ‘ह्रीं’ के स्थान पर ‘ह्रौं’ है) श्रीं श्रीं जय जय द्रां कलि द्राक्षसा श्रृं जय (अन्यत्र ‘श्रृं जय’ के स्थान पर ‘भृंजय’ है) जिनेभ्योः ओं भवतु स्वाहा।
निर्देश- दर्पण सामने रखकर प्रतिमा के उल्टे तरफ के कान में (बायें कर्ण में) निर्ग्रंथ मुनि पांच बार पढ़ें।
और भी तीन-चार प्रतिष्ठाचार्यों ने प्रतिष्ठा विधि के ग्रन्थ संकलित किये हैं, किन्तु उनमें आश्रय-ग्रन्थों की त्रुटियों के अतिरिक्त उनके द्वारा की हुई भी त्रुटियां और जुड़ गई  हैं।
यहां देखें तो पं. नाथूलालजी, द्वारा संकलित प्रतिष्ठा-प्रदीप और नेमिचन्द्र सिद्धान्तिदेव कृत प्रतिष्ठातिलक के परिशिष्ठ में संग्रहीत सूरिमंत्र में कुछ बीजाक्षरों की हीनाधिकता के साथ पर्याप्त साम्य है। प्रतिष्ठाप्रदीप में निर्देश है, किन्तु यह नहीं लिखा है कि मंत्र कहां-कैसे देना है। और प्रतिष्ठातिलक में तो निर्देश ही नहीं है। तथा इसे परिशिष्ट में दिया गया है।
प्रतिष्ठारत्नाकर में पं. गुलाबचन्द्र जी ‘पुष्प’ ने दो सूरिमंत्र देकर संदेह में डाल दिया है। ये दोनों मंत्र हमने अन्यत्र नहीं देखे, अपितु पुण्याहवाचन के मंत्र का कुछ अंश इसके एक मंत्र में अवश्य है।  इन संकलित दो सूरिमंत्रों के नीचे लिखा है कि ये मंत्र पं. मन्नूलाल जैन प्रतिष्ठाचार्य की हस्तलिखित डायरी से उद्धरित किये हैं। पं. मन्नूलालजी पं. गुलाबचन्द्रजी ‘पुष्प’ के पिताजी थे और वे प्रतिष्ठित प्रतिष्ठाचार्य थे। प्रतिष्ठारत्नाकर जो आज सर्वाधिक लोकप्रिय है इसके मंत्रों में थोड़ा संदेह भी है, कारण कि इसमें वास्तुविधान के 14 मंत्र ऐसे हैं जिनका सीधा आधार कुछ नहीं है, उन्हें केवल ऋद्धिमंत्रों, शांतिमंत्र, रक्षामंत्र, शांतिधारा आदि जगह-जगह से लेकर एक कल्पित वास्तु विधान बतला दिया गया लगता है।  ‘अंकन्यास’ और ‘संस्कार मालारोपण’ में तो बहुत त्रुटियां हैं और कई मंत्रों का विलोपन भी हो गया है।
 गणधराचार्य श्री कुंथुसागरजी महारा द्वारा संकलित ‘प्रतिष्ठा विधि दर्पण’ में दो सूरि मंत्र हैं जरूर लेकिन वे प्रतिमा के दोनों कर्णों के लिए अलग अलग हैं। हाँ, इस ग्रन्थ में एक तीसरा सूरिमंत्र दिया है, जिसके लिये लिखा है ‘प्रकारान्तर से’। ये प्रकारान्तर से शब्द तो नये प्रतिष्ठाचार्यों को अधिक भ्रमित करने वाला है। प्रतिष्ठाचार्य क्या करवाये? क्या सही मंत्र प्रतिमा के दोनों कर्णों में बुलवा दे? फिर इस मंत्र का साम्य वैष्णवों के प्रचलित ‘गायत्री मंत्र’ से है।
प्रतिष्ठासारोद्धार में तो सूरिमंत्र है ही नहीं। इसलिये कौन दें इसका निर्देश देने की आवश्यकता ही नहीं पड़ी।
पं. बदामीलालजी पचैरी द्वारा संकलित प्रतिष्ठा पाठ ‘‘अचेतन से चेतन’’ में दो सूरिमंत्र दिये हैं ये निर्देशों के साथ गणधराचार्य कुंथुसागरजी महाराज द्वारा संकलित ‘प्रतिष्ठा विधि दर्पण’ से लिये गये हैं। एक एक पंक्ति के भी इन मंत्रों में भारी अशुद्धि है। अशुद्ध मंत्रों से की गई बिम्ब प्रतिष्ठा की क्या स्थिति होगी? कहा नहीं जा सकता और उसका दोषी कौन कौन है, यह भी अलग प्रश्न है।
सूरिमंत्र देने का अधिकारी कौन?
बिम्ब प्रतिष्ठा विधि में तिलकदान के उपरान्त स्त्री पात्रों का कोई विधि करने का निर्देश दृष्टिगत नहीं होता है। अथवा यह कहें कि प्रतिष्ठाचार्य या आचार्य का उल्लेख तो है किन्तु प्रतिष्ठाचार्या या आचार्या या गणनी का उल्लेख कहीं नहीं मिलता। यद्यपि सभी निर्देश पुरुष वाचक में ही दिये जाते हैं, जहां स्त्रियां अनुमत हैं वहां उन्हें भी पुरुषों के समान निर्देश मान लिये जाते हैं। किन्तु सूरिमंत्र देने का विषय अलग है।
पं. नाथूलाल जी ने दिगम्बर मुनि से प्रतिमा में सूरिमंत्र दिलवाने का निर्देश दिया है। पं. गुलाबचंद्र ‘पुष्प’ जी ने सूरिमंत्र देने के लिए आचार्य को निर्देशित किया है। यहां आचार्य से तात्पर्य आचार्य श्रमण से होगा। ‘प्रतिष्ठा विधि दर्पण’ में ‘‘निर्ग्रन्थ मुनि’’ द्वारा सूरिमंत्र देने का उल्लेख किया है। अन्यत्र सूरिमंत्र कौन दे यह निर्देशित नहीं है।
  सूरि का अर्थ है आचार्य। सूरि-मंत्र से दो अर्थ ध्वनित होते हैं, एक तो जिसे सूरि अर्थात् आचार्य दे वह सूरि मंत्र और दूसरा जिससे सूरि अर्थात् आचार्य- (आचार्य-परमेष्ठी) के गुण आरोपित किये जायें वह। यहां दूसरा अर्थ अभिहित है।
सूरिमंत्र सर्वज्ञत्व प्राप्ति में मुख्य है।
हमने किसी प्रतिष्ठाचार्य या विधानाचार्य द्वारा मुनि के संस्कार करते हुए नहीं देखा,  जिनको जिस पद के संस्कार किये जा रहे हैं वे स्वयं पहले से संस्कारवान हैं या नहीं? यह भी आवश्यक होना चाहिए। अर्थात् सवस्त्र आचार्य दिगम्बरत्व के पूर्ण संस्कार करने का अधिकारी कैसे हो सकता है। इसलिए हमारे अधिकांश प्रतिष्ठाचार्यों ने उन्हें मिले परम्परा के निर्देशों के अनुसार अंकन्यास, मुखोद्घाटन, नयनोन्मीलन, प्राणप्रतिष्ठा मंत्र, और सूरिमंत्र-दान की क्रियायें दिगम्बर मुनिराज से करवाने का निर्देश दिया है। अर्थात् गृहस्थ-वस्त्रधर प्रतिष्ठाचार्य, क्षुल्लक, ऐलक, आर्यिका माताजी वे सूरिमंत्र देने के अधिकारी नहीं होना चाहिए। फिर सब अपनी सुविधानुसार व्याख्यायें बना लेते हैं और श्रावक तो यह कहकर अनुमोदना करता है कि वे (करवाने वाले) हमसे अधिक जानते हैं।
गणधराचार्य कुंथुसागरजी महाराज ने ‘प्रतिष्ठा विधि दर्पण’ के पृष्ठ 212 पर सूरि मंत्र के विषय में जो लिख है, वह द्रष्टव्य है-
‘‘यह सूरि मंत्र गुरु परंपरा से प्राप्त है। मूल रूप से सूरि मंत्र यही है (खंड2, पृष्ठ212), वर्तमान में प्रतिष्ठाचार्य णमोकार मंत्र या गायत्री मंत्र या इधर उधर के उपलब्ध मन्त्र को ही सूरि मन्त्र समझकर भगवान के कान में फूंक देते हैं यह ठीक नहीं है। मैंने करीब सभी प्रतिष्ठाशास्त्र देखे हैं, किसी भी प्रतिष्ठा शास्त्र में सूरि मन्त्र नहीं दिया गया है। आचार्यों ने सूरि मन्त्र को गोप्य रखा है। इसलिए शास्त्रों में वर्णन नहीं मिलता, दक्षिणात्य परम्परा में तो प्रतिष्ठाचार्य भगवान को सूरिमन्त्र देते ही नहीं हैं। जब तक सूरिमन्त्र नहीं दिया जाये, तब तक उस प्रतिमा में प्राण नहीं आता। इसलिए सूरिमन्त्र अवश्य देना चाहिए और निर्ग्रंथ वीतरागी भगवान को निर्ग्रंथ वीतरागी साधु ही प्राण-प्रतिष्ठा मन्त्र दे सकता है।
वर्तमान में कुछ प्रतिष्ठाचार्य पंडित स्वयं कुछ क्षणों के लिये नग्न होकर सूरिमन्त्र भगवान को दे देते हैं, यह प्रथा ठीक नहीं है। प्रतिष्ठाचार्यों को अवश्य विचार करना चाहिए, जहां भी पंचकल्याणक प्रतिष्ठा हों वहां पर किसी निर्गं्रथ साधु को अवश्य बुलाना चाहिए और उन्हीं से सूरि मन्त्र दिलवावें, गृहस्थ पंडित को सूरिमन्त्र देने का कोई अधिकार नहीं है। वस्त्र छोड़कर पुनः वस्त्र को ग्रहण करना महान पाप का कारण है, क्योंकि कल्पना तो निर्ग्रंथ मुनि की ही करके वस्त्र छोड़ते हैं और फिर सूरिमन्त्र देते हैं। यह एक प्रकार का शिथिलाचार है। निर्ग्रंथ वेष धारण कर छोड़ा नहीं जाता है।
इस उद्धरण से भी काफी कुछ स्पष्ट हो जाता है।
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