पागलपन एक पल का बदले में व्याकुलता पूरे जीवन भर की👉डा.निर्मल जैन(से.नि.जज)
नैतिक एवं मानवीय मूल्यों का पालन होता रहे इसलिए हर समाज में समाज-व्यवस्था को चलाने के लिये नियम और कानून बनाए जाते हैं। इन्ही नियमों, क़ानूनों का उल्लंघन करना अपराध कहलाता है। मनोविज्ञान शास्त्र अपराध को मनुष्य की मानसिक उलझनों का परिणाम मानता है। प्रकृति की सर्वोत्तम कृति, मानव आकांक्षाओं और सुविधाओं के जाल में इतना उलझता जा रहा हैं कि बावजूद इसके कि कानून अपना काम कर रहा है, दोषियों को सजा मिलती है, धर्मपीठों से निरंतर सदाचार के प्रवचन प्रवाहित होते रहते हैं फिर भी अपराध का ग्राफ दिन प्रतिदिन बढ़ता ही जाता है।
👉डॉ॰ अलफ्रेड एडलर का कथन है कि –जिस व्यक्ति के मन में हीनता की मानसिक ग्रंथियाँ रहती हैं वह अनिवार्य रूप से स्वयं को दूसरे लोगों से अधिक बलवान सिद्ध कर सके इसलिए अनेक प्रकार के अपराध करता है।कितनी विचित्र स्थिति है कि व्यक्ति जब अपने किसी स्वार्थ, प्रतिशोध, या आक्रोश के प्रतिकार में जिस सरसों के दाने जैसा आनन्द पाने के लिए अपराध कर रहा होता है उस समय जानते हुए भी भूल जाता है कि उस आपराधिक कृत्य की उसे मेरु पर्वत सी विशाल पीड़ा मिलती है। मजा गुलाब के फूल की एक पंखुड़ी जितना और सजा सैकड़ों कांटे की चुभन। पैसे जैसा क्षणिक सुख और रुपए बराबर जैसी उद्गिनता। पागलपन एक पल का बदले में व्याकुलता पूरे जीवन भर की। 👉बुद्धिमत्ता इसी में है कि जिस आनंद के गर्भ में ऐसी सजा पल रही हो उस आनंद से स्वयं को दूर रखना ही श्रेयस्कर है। जिस कथित मौज-मजे की डाली पर संताप के सैकड़ों कांटे उग रहे हो ऐसे भोग-विलास के पौधे को खाद-पानी क्यों देना? कुछ क्षण की प्रसन्नता जो बरसो के उद्वेग को आमंत्रित करे वो प्रसन्नता के क्षण किस काम के? अगर अपराध करने के बाद मन व्यथा का अनुभव करता है तो उससे मिला बड़े से बड़ा आनंद भी नीरस हो जाता है। अपराध के मार्ग पर जा कर जहां हम पहुंचते हैं वहां न शांति है, ना प्रसन्नता है।हमारी रचना मानव से महामानव बनने और शाश्वत आनन्द (“मुक्ति”) पाने के लिए है। हम प्रयास कर रहे हैं मानव से दानव बन कर उस परम सुख से नाता ही तोड़ने का।
👉महावीर का संदेश है -शांति और प्रसन्नता प्राप्त करने का एक ही उपाय है, अप्राप्त को अपराध के मार्ग से प्राप्त करने की कदापि भी चेष्टा ना करें। जो हमारे पास है उसे स्वीकार कर उस का सम्यक उपभोग करें। जो नहीं मिला है उसे विस्मृत कर दें।
इस समय अपराध की बस एक यही पहचान है कि कानून ने जिस काम को मना किया है, जो वर्जित है या जिसने कोई कर्तव्य लोप किया है वह अपराधी है। लेकिन आज का अपराध-शास्त्र इसमें विश्वास नहीं करता कि – कि कोई जन्म से ही अपराधी बनता है। या जानबूझ कर अपराधी-वृत्ति को अपने जीवन का लक्ष्य बनाता है । अपराध करने वाला किसी परिस्थिति का दास भी हो सकता है, कोई विवशता भी हो सकती है। इसलिए हर एक अपराध का तथा हर एक अपराधी का अध्ययन किया जाना चाहिए।
👉इटली के डॉ॰ लांब्रोजो पहले शास्त्री थे जिन्होने अपराध के बजाय ‘अपराधी‘ को पहचानने का प्रयत्न किया।
एक स्वस्थ अहिंसक समाज में बदला, नफरत,हिंसा को कोई जगह नहीं मिल सकती। आधुनिक मनोविज्ञान कहता है कि समाज में अपराध को कम करने के लिए केवल दंडविधान को कड़ा करना ही पर्याप्त नहीं है। त्वरित एवं कठोर दण्ड का इतना भय अवश्य हो कि दुष्कृत्य करने का विचार तक भी नहीं आये। लेकिन वो समाज भी रुग्ण है जो केवल सजा के रूप में अपराधी से बदला लेना चाहता है।
अपराध के प्रति रोष के आवेश में अपराधी को समाप्त करने की सोच सही नहीं। पीड़ा पट्टी साफ करने से नहीं घाव साफ करने से मिटती है। अत: बिना किसी पूर्वाग्रह और दुराग्रह के शांत-चित्त से अपराधी मनोवृत्ति के उत्पन्न होने के कारणों को ढूँढ़ना होगा। उनके ऐसे निर्दोष समाधान और उपायों को भी खोजना होगा जिससे रोग से लड़ें लेकिन रोगी को बचाएं।
अपराधी-वृत्ति एक रुग्ण-अवस्था है। उसे इतनी सहानुभूति, प्रेम, स्वीकार भाव के माध्यम से भावनात्मक इलाज की जरूरत होती है कि वो स्वयं यह एहसास करने लगे कि –इतनी सुंदर और सह्रदय दुनिया में मैंने मानवता के विरुद्ध यह कृत्य क्योंकर किया? इसके लिए समाज में सुसंस्कारित, सुशिक्षा अनिवार्य है। अगर अपराध को निष्प्राण बनाना है तो अपराध करने के बाद अपराधी के अंत:करण को सकारात्मक व्यवहार से अपराधिक मानसिकता के विरुद्ध सदैव व्यथित रखते जाना है, जिससे कि अपराध की पुनरावृत्ति की कामना ही उत्पन्न न हो|
👉जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन