संत कबीर कुछ सोच-विचार कर ही कह गए हैं -“ढाई आखर प्रेम का पढ़े सो पंडित होय”। शायद उनका अनुभव रहा होगा कि केवल पुस्तकों को पढ़कर पंडित कहलाए जाने भर से यह जरूरी नहीं हो जाता कि जीवन के भी पंडित हो गए। पुस्तक पढ़े हुए पंडित कोरे तर्क-वितर्क वाद-विवाद और शास्त्रार्थ भर करने में निपुण तो हो सकते हैं। लेकिन जीवन के धरातल पर पंडित और प्रज्ञावान वह होता है जिसने अपने जीवन में जीवन का आधार प्रेम के पवित्र पाठ को पढ़ा है।
न जाने कब से यह सारा जगत किताब, शास्त्रों,पुराणों को पढ़ता ही रहा है। लेकिन इस पढ़ने से आचरण में कितना प्रभाव हुआ है यह आंकलन करना सरल नहीं दिखाई दे रहा। पढ़े हुए ज्ञान को अपने हृदय में उतार कर ही प्रेम को पाया जा सकता है।
हमारी यह जीवन-यात्रा प्रेम से ही शुरू होती है। जन्म से मरण तक हम प्रेम की ही छाया में सांस लेते हैं। प्रेम मांग नहीं, भेंट है। प्रेम भिखारी नहीं, सम्राट है। परिवार का तो प्राण ही प्रेम है। मां का वात्सल्य अतुल्य प्रेम का रूप है, भाई बहन का स्नेह प्रेम के अतिरिक्त और क्या ? पति-पत्नी का संबंध तो दो अपरचितों के प्रेम का प्रतिरूप ही है। समाज की शक्ति परस्पर प्रेम-भाव है। सत्य तो यह है कि हमारे लिए प्रेम ही मार्ग है, प्रेम ही हमारी मंजिल है। पूजा–भक्ति में अगर ईश्वर से हृदय से प्रेम ना उपजता हो तो वह केवल शब्द-जाल है।मात्र चंदन का घिसना है और सामग्री का एक थाल से दूसरे थाल में पलटना है। मनुष्य की समस्त दुर्बलताओं पर विजय प्राप्त करने वाली अमोघ वस्तु प्रेम मेरे विचार से परमात्मा की सबसे बड़ी देन है।–डॉ० राधाकृष्णन
महावीर की अहिंसा को विस्तृत अर्थ में देखें तो पाएंगे कि वह भी सभी जीवो के प्रति मान-सम्मान,कुशलक्षेम के प्रति एक प्रेम का ही प्रतिरूप है। राम की मर्यादा प्रेम का सकारात्मक पहलू है। कृष्ण की भक्ति का रास्ता तो प्रेम की पगडंडी से ही जाता है। जीवन की नीरसता को प्रेम ही भरता है। किसी बीमार और उदास व्यक्ति को कहीं से दो मीठे बोल प्रेम के मिल जाते हैं तो उसका अंतर-बाहर खिल उठता है। प्रेम हमें अपने मित्र पर ही नहीं, अपितु जो हमारे शत्रु हैं, उन पर भी रखना है। प्रेम नि:शब्द है। प्यार अव्यक्त है। प्रेम सुगंध है और प्रेम में ही दुनिया के सारे रंग है। प्रेम के अनेक रूप हैं। राधा-कृष्ण का निश्छल हास-परिहास, कृष्ण और सुदामा के सत्तू प्रेम के ही प्रतीक थे। प्रेम तो आत्मिक है, हृदय की विषय-वस्तु है। शारीरिक आकर्षण प्रेम नहीं। हृदय में बज रही विशुद्ध प्रेम की वीणा की झंकार उस परमात्मा की वाणी से भी कम नहीं है। लेकिन आज हमारा विश्वास प्रेम की अपेक्षा भौतिक पदार्थों पर अधिक हो रहा है। हम चंद्रलोक, मंगलग्रह की यात्रा करने को उद्धत हैं, मृत्यु पर विजय प्राप्त करने के लिए प्रयत्नशील हैं। लेकिन अपने अंतर में झाँकने का कोई प्रयास नहीं। यही कारण है हमारा हृदय अत्यंत संकुचित होता जा रहा है। मानवता और प्रेम तो उसके अंदर बचे ही नहीं हैं ।वर्तमान जगत की पर्यावरण से लेकर हिंसा और आतंक की सारी समस्याओं का एकमात्र समाधान प्रेम है। प्रेम का प्रारंभ पहले मनुष्य से होता है लेकिन अगर उसका विस्तार पशु–पक्षी, फूल–पौधे तक हो जाये तो वो पूजा और इबादत बन जाता है। यह प्रेम ही तो है जिसे आत्मसात करते ही, जीवन प्रभु का प्रसाद और पुरस्कार हो जाएगा।
जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन