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Home›लेख-विचार›दान की पहली शर्त है-अपने अहंकार और अपनेपन का निशशेष भाव से समर्पण👉डा. निर्मल जैन(से.नि.जज)

दान की पहली शर्त है-अपने अहंकार और अपनेपन का निशशेष भाव से समर्पण👉डा. निर्मल जैन(से.नि.जज)

By पी.एम. जैन
March 18, 2020
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नई दिल्ली -: सेठजी उस दिन भी एक घंटे पूजा करने के बादभगवान के लिए स्वर्ण का सिहासन अर्पित करने की घोषणा कर अमीरों वाला रौबीलापन और चेहरे पर दानकर्ता होने का गर्व लिए मंदिर से बाहर आए। मंदिर के बाहर भिखारियों की लंबी कतार थी। सेठजी के साथ में बूढ़े मुनीम जी हाथ में पचास रुपये के नोटों की गड्डी लिए भिखारियों तक बढ़ रहे थे। मुनीमजी  50/ रुपये  का एक-एक नोट सेठ जी को देते थे,  सेठ जी  नोट को भिखारियों में बांट कर उनकी दुआओं से अभिभूत हुए जा रहे थे।भिखारियों की कतार में एक ऐसा भी आदमी खड़ा था जिसकी आंखों में आत्मविश्वास और खुद्दारीझलक रही थी। सेठ जी ने उसे पचास का नोट पकड़ाया तो उस आदमी ने हाथ जोड़ते हुए कहा- सेठजी मुझे भीख नहीं चाहिए। मुझे मेहरबानी कर सिर्फ 5,000/- रुपये रुपए उधार दे दें। उससे मेरा रोजगार फिर से शुरू हो जाएगा।

👉उधार का नाम सुनते ही सेठजी के चेहरे के भाव बदल गए। उनके चेहरे से धर्मात्मा और दानवीर होने का मुखौटा उतर गया। बोले- उधार चाहिए, कैसे देगा वापस?

👉सेठ जी साइकिल लुंगा, मेहनत करूंगा, गांव से सब्जी लाकर यहां बेचूंगा। अपना परिवार पालूंगा और कुछ ही दिनों में आपका पैसा भी लौटा दूंगा।

वो बार-बार इस बात को कहते हुए सेठ जी के पैरों मे झुक गया। सेठजी का दिल नहीं पसीजा और उसे लगभग दुत्कारते हुए आगे बढ़ गए। मुनीम जी की पारखी नजरों में उस युवक की आंखों में सच्चाई नजर आयी। सेठ जी गाड़ी में बैठे तो मुनीम जी बड़ी हिम्मत कर बोले- मालिक! दे देना था उस गरीब को रुपया।

-पागल हो गए हो क्या मुनीम जी। अगर वो भाग जाता और नहीं देता वापस तो?

👉मुनीम ने बड़े धीरे से कहा- पर मालिक, ऐसा आदमी लगता तो न था। और नहीं भी देता तो समझो की एक हफ्ता हमने 5000/ दान नहीं किया। कुछ उसका भला करके हमें पुण्य ही मिलता। ये मंदिर के बाहर के भिखारी तो सालों से बस आप जैसे सेठों के पैसे पे ऐश करते फिरते हैं, न काम न मेहनत। शाम के वक्त सब नशे में धुत्त पास वाली ‘देसी कलाली‘ के दरवाजे पर दिखाई देते हैं। यह बेचारा एक अकेला ही तो मिला जो आपसे खैरात नहीं उधार लेकर मेहनत से कमा कर चुकता करने की बात कह रहा  था।👉मुनीम की बात सच थी। लेकिन मुनीम द्वारा जवाब दिए जाने को अपने अहंकार पर चोट मानते हुए  सेठ जी क्रोधित हो बोले- ‘मुनीम जी! आप वाकई हिसाब में बहुत कच्चे हैं। इन्हीं गरीबों की दुआओं से तो हमारे पुण्यों का हिसाब बराबर होता है। अब यूं हर किसी की मदद करने लगे तो यहां मंदिर के बाहर लाइन कैसे लगेगी?

👉यह प्रसंग अधिकांश दातारों की दान देने के प्रयोजन के पीछे उनकी भावना को दर्शाती है। दान करने वाला अगर प्रतिदान में असहायों की दुआ चाहता है तो उसका दान सफल नहीं कहा जा सकता। सेठ जी अगर उस मेहनत करने वाले स्वाभिमानी की मदद करते तो उनका दान धर्मसम्मत दान होता। असमर्थ को समर्थ बनाना ही सही नजरिए से दान करना है। भगवान जिस माया को त्याग भगवान बने उनको उसी  स्वर्णजड़ित हीरे-जवाहरात के सिंहासन पर बैठाना भगवान का अवमूल्यन करना है। माणिक-मोती से जड़ा स्वर्ण सिंहासन भगवान प्रतिमा की अपेक्षा अधिक आकर्षण का केंद्र बन जाएगा👉जिन दर्शन के अनुसार -दान का अर्थ ही है,अपनेपन का दावा छोड़ना। हमने जिसे अपना मान कर ममता रखी हुई है उस पदार्थ को सहज भाव से दूसरे को अर्पित कर देना ही वास्तविक दान है। दान की पहली शर्त है – अपने अहंकार और अपनेपन का निशशेष भाव से समर्पण।👉यह सनातन नियम है कि यदि कुछ प्राप्त करना हो तो अर्पित करना सीखो। खुश रहने की अनिवार्य शर्त है खुशियां बांटें। खुशियां बांटने से बढ़ती हैं और दुख बांटने से घटता है। यही वह दर्शन है जो हमें स्व से पर-कल्याण यानी परोपकारी बनने की ओर अग्रसर करता है। यह सोचने को विवश करता है कि सबके लिए जीने का सुख क्या है? समाज के प्रति भी  मनुष्य के कुछ कर्तव्य होते हैं। सबसे बड़ा कर्तव्य है एक-दूसरे के सुख-दुख में शामिल होना और यथा-शक्ति सहायता करना।                                                                                                                          जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन 

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