फिर वहीं लौट के जाना होगा👉डा.निर्मल जैन(से.नि.)जज
जीवन सुख-दुःख का चक्र है। सुख में आत्मबल को दृढ़ता मिलती है, दुःख शिक्षक बनकर बहुत कुछ सिखा कर जाता है। आज के इस दुख ने पूरे विश्व को असहाय और निरुपाय बना दिया है। जनजीवन जैसे ठहर सा गया है। दिल ओ दिमाग पर एक अंजान सा डर हावी रहता है।
👉पर्यावरणविद कह रहे हैं प्रकृति अपने मूल स्वरूप में लौटने लगी है। उद्योगों के बंद होने से नदियों में जल, आकाश में वायु एवं वातावरण में ध्वनि प्रदूषण घट घट रहा है। वाहनों के चालन और निर्माण कार्य पर प्रतिबंध होने से हवा स्वास्थ्यकर हो गयी है। ओजोन लेयर में सुधार हुआ। परिवार से आत्मीयता बढ़ी।
👉पर्यावरण और वातावरण में यह सुधार स्वागत योग्य अवश्य हो सकता है। लेकिन जिस जन-धन की हानि की कीमत पर यह सब हुआ है उस की तुलना में यह उपलब्धियां नगण्य हैं। पूरे विश्व का आर्थिक,सामाजिक जन-जीवन अस्त-व्यस्त हो गया। बड़ी संख्या में लोग असमय ही काल-कवलित हो गए। एक बहुत बड़े वर्ग के सामने रोटी-रोजी की समस्या खड़ी हो गयी है। उद्योग-धंधे बंद होने के कारण जीवन-निर्वाह की आवश्यक वस्तुओं की पूर्ति प्रभावित हुई। कृषि क्षेत्र श्रम की समस्याओं से अलग जूझ रहा है। लेकिन और कोई रास्ता भी तो नहीं। इस विभीषिका से बचने का एकमात्र बचाव “लॉकडाउन” ही है। जिसके सुखद परिणाम आ भी रहे हैं। अगर स्वयं को बचाना है तो इन सब को सहना ही होगा। जन बचे रहेंगे तो जो धन चला जा रहा है अपने पुरुषार्थ से फिर वापिस ले आएंगे।
👉उपभोग जीवन के लिए अनिवार्यता है। लेकिन सीमारहित उपभोग अनिष्टकारी होता है। जिस प्रकार वीणा से सही स्वर तभी निकलते हैं जब उसके तार संतुलित मात्रा में कसे हों। ऐसे ही अपने साथ सबका जीवन खुशहाल बनाने के लिए हमारा कार्य-व्यवहार,भोगोपयोग संतुलित होना आवश्यक है। हमें मध्य-मार्ग अपनाकर न स्वयं अभाव में रहना है न किसी के अभाव का कारण बनना है ।
👉बढ़ते औधेगीकीकरण से उत्पादन तो बढ़ा पर पर्यावरण के साथ-साथ भूमि, जल, वायु सभी दूषित हुए। आज की उपभोक्ता मूल्यों वाली संस्कृति में संयम को खूंटी पर टांग कर जीना ही क्या जीने का एक मात्र रास्ता है? जिस पर रोटी न थी उसे रोटी तो मिली पर क्या सुख भी मिला? रोटी मिलना एक व्यथा का मिटना तो है, सुख का होना नहीं। भूख को इतना मत बढ़ाओ कि वो स्वयं के लिए तो हानिकारक बने ही, दूसरों का जीवन भी संकटमय बना दे।
👉युग बहुत आगे बढ़ गया है साथ ही वर्तमान अर्थशास्त्र की आधुनिक अवधारणाओं में पला-पुसा मानव अब हजारों वर्ष पहले के युग का जीवन जीने को तैयार नहीं होगा। इसलिए हमें उन महावीर की ओर जिसे हम भूल चुके हैं, फिर से लौट के जाना होगा। जिस को अपनाने पर जीवन भी सुगमता से चलता रहे और ऐसी आपदाओं से दो-चार भी न होना पड़े। जिन दर्शन की वो जीवन-शैली जिसकी प्रथम मान्यता है कि हमने अपनी थाली में इतनी रोटियाँ तो नहीं परोस ली हैं जिसके कारण पड़ोसी की थाली में रोटियां कम हो गयी हैं।
👉एक ऐसी सर्व-कल्याणकारी व्यवस्था जिसमें उत्पादन भी हो, संसाधनों का विकास भी हो। वहीं महावीर के यह स्वर भी सुनाई दें – परिग्रह के परित्याग की भावना, अर्जन की भावना के साथ विसर्जन की भावना भी। यह स्वर दायें-वायें सुनाई देंगे, तो हमारी अर्थव्यवस्था नया समाधान देने वाली होगी, कार्यकर बनेगी, सार्थक बनेगी । हमारा विकास आतंक और हिंसा,लूट, खसोट की राह पर धन को केंद्र-बिंदु बनाकर नहीं अपितु खुली पगडंडियों, खुली हवा, नाचते मोर, कूकती कोयलों और कजरी की तानों के साथ-साथ मानवता की उस डगर से गुजरेगा जिसमें प्रकृति का गला दबा कर, बलात्कार करने का नहीं पुचकार कर उसके माथे का पसीना पोंछकर जीने का गुर बताया है।–जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन