(प्रसंग-वासल्यवारिधि आचार्य श्री वर्धमानसागर जी महाराज के आचार्य पदारोहण दिवस)

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डॉ.निर्मल शास्त्री, हटा

संसार की गति निरंतर प्रवाहशील है। इसमें उत्थान और पतन सम्पूर्ण जीवनचक्र की नियति है। इस चक्र से व्यक्ति मोही, दम्भी, निरीह, भोगी, आकांक्षी, मायावी और अन्यान्य चरित्रों का चित्रण करता है। जिससे मानव मूल्यों में गिरावट देखी जा रही है। इससे धार्मिक चेतना स्खलित हो रही है।
मानवीय मूल्यों का विकास श्रमण संस्कृति की उन्नत दशा है, जो कि हमें श्रमण संस्कृति के पुरोधा संतों से प्राप्त होती है। यह हमारा सौभाग्य है कि वर्तमान कालीन श्रमण संस्कृति की उन्नत दशा में हमें जन्म मिला। जो स्वर्णिम युग है। आज हमें सर्वत्र श्रमण संस्कृति के उन्नायक श्रमणसंतों का दर्शन सुलभ है। इसका श्रेय बीसवीं सदी के सर्वश्रेष्ठ, सर्व हितकारी, सर्व समन्वयवादी परमपूज्य चारित्रचक्रवर्ती आचार्यप्रवर श्रीशांतिसागर जी महाराज को जाता है, जिन्होंने अपनी श्रेष्ठतम आत्मिक साधना से विच्छेद श्रमण संस्कृति को पुनर्जीवित तो किया ही, साथ ही अपनी दूरदर्शिता से जन सामान्य में श्रमण और श्रमणसंस्कृति के प्रति आस्था, विश्वास व स्वरूप समझ दृष्टि पैदा की। आपने श्रमणत्व की उच्चतम साधना को आत्मसात् करके सम्पूर्ण विश्व में श्रमण जिन धर्म की ध्वजा को फहराया। जो आज भी धवलित हो धवलता से आच्छादित है।
आपके ही आगमिक पट्टपरम्परा के धवलकीर्ति वर्धित अंतिम तीर्थंकर वर्धमान स्वामी के लघुनंदन स्वरूप स्वनामधन्य पंचम पट्टाचार्य वात्सल्यवारिधि परमपूज्य १०८ श्री वर्धमानसागर जी महाराज हैं, जिन्होंने सम्पूर्ण राष्ट्र में अपनी सहज वात्सल्यतामयी धर्म की निर्मल, सरस सरिता से सम्पूर्ण जीवों को सराबोर किया ।
आप में जहां सागर सी गहराई, हिमालय सी ऊँचाई परिलक्षित होती तो वहीं चन्द्रमा-सी शीतलता, चन्दन-सी सुगंध भाविता अनुभवन होती है। सबको अपनत्व प्रदान करने की क्षमता, मिथ्यात्व रूपी तमनाशन की प्रबल प्रचंडता विद्यमान है। आप सूर्यसम तेजस्वी, कांतिमान, गुरु आज्ञा अनुसारी आगम पथ प्रदर्शक श्रमण संत हैं। वास्तव में आप निराले संत हैं। नीतिकार कहते हैं कि-
शैले शैले न माणिक्यं, मौक्तिकं न गजे गजे।
साधवों ना हि सर्वत्र, चंदनं न वने वने ।।
जो रत्नत्रय के धारी, गुणों की खान, समन्वय के राही, समन्वय आगमवाणी रूप धर्म उपदेशक हैं। आपमें भक्त वात्सल्यता सहज ही है। अतः हम कह सकते हैं कि-
ओ युग के वात्सल्य सूर्य, तुम जन जन के मार्ग प्रदर्शक हो।
नई रोशनी ज्ञान किरण व दिशाबोध के दर्शक हो।।
भक्तों को वात्सल्य, और जीवों को सत् राह दिये हैं।
इस युग में ऐसे गुरु को पा, हम धन्य हुए हैं।।
उनकी रज कण पा, संतप्त हो, सन्मार्ग लिए हैं।
आगम पथ राही हो, पत्थर से हीरा बना दिये हैं।।
शांतिसिंधु से वर्धमान तक, वीर-शिव-धर्माजित वर्धमान हैं।
आपकी दिव्य देशना से, सहज धर्म-संदेश प्रवर्द्धमान हैं।।
नमन आपको करता हूँ मैं, दिव्य मार्ग के वर्द्धक हो।
वर्धमान के पथ पर चलकर, वर्धमान तुम जग बोधक हो।।
सत्य साधना संयम सौरभ, महक रही जिनकी बगिया में।
अवगाहित होता नित निर्मल, वर्धमान के वत्सल सागर में।।
जिनकी चर्या सहज है, जिनकी छाॅव तले हम सब अपने कल्याण में संलग्न होते हैं। ऐसे वासल्य वारिधि आचार्य श्री वर्धमान सागर जी महाराज के 31 वें
आचार्य पदारोहण दिवस पर शत् शत् नमन करते हैं।
