श्रावक शब्द *’श्रु ‘* धातु से बना है, जिसका अर्थ होता है श्रवण करना अथवा सुनना। जो शास्त्रों का श्रवण करता है उसे श्रावक कहते हैं।
*अभिधान राजेंद्र कोष* के सप्तम खंड में श्रावक को इस प्रकार व्याख्यायित किया गया है:-
🌷1) जो जिनवाणी का श्रवण करता है, वह श्रावक कहलाता है ।🌷2)जो जिनोक्त तत्वों पर श्रद्धा करता है, सात पुण्य क्षेत्रों में धन का व्यय करता है और कर्म क्षय हेतु प्रयत्नशील बनता है, वह श्रावक कहलाता है ।🌷3)जो साधु के निकट श्रमण समाचारी का श्रवण करता है, वह श्रावक कहलाता है।
🌸 *श्रा* अर्थात जिनवाणी पर दृढ श्रद्धा और शास्त्र श्रवण ।🌸 *व* अर्थात करणीय- अकरणीय का विवेक । 🌸 *क* अर्थात अशुभ का कर्तन( छेदन) और क्रिया- निष्ठ जीवन ।इन तीनों में सम्यक दर्शन- ज्ञान और चरित्र की स्पष्ट झलक है, जो जिनोक्त वचन पर आस्था धरता है ,जो आत्मा के हित अहित को जानता है और सदाचरण में कुशल है, वह श्रावक है ।
🌹 *आवश्यक वृत्ति* में श्रावक को परिभाषित करते हुए कहा गया है कि जिन गृहस्थो में जिन शासन के प्रति भक्ति और प्रीति है, उन्हें श्रावक कहा जाता है।
🔴 *आगम* पाठों में श्रावक के लिए *समणोवासग* शब्द का प्रयोग हुआ है, जिसका संस्कृत रूपांतरण *श्रमणोपासक* होता है।
श्रमण का अर्थ होता है साधु और उपासक का अर्थ होता है उपासना करने वाला।
जो श्रमण की उपासना एवं सेवा भक्ति करता है वह श्रावक कहलाता है।
🟢 *निशिथ चूर्णि* में दो प्रकार के श्रावक कहे गए हैं ।जो परमात्मा वाणी के प्रति अगाध श्रद्धा से युक्त है, परंतु जिन कथित व्रतों को जीवन में धारण नहीं कर पाते हैं वे दर्शनी श्रावक कहलाते हैं। जो आप्त परमात्म वचनों में दृढ़ श्रद्धान्वित होने के साथ-साथ तदनुरूप आचरण भी करते हैं, वे व्रती श्रावक कहलाते हैं।
🔴 जीव दो प्रकार से श्रमणोपासक की भूमिका को प्राप्त करता है ।
🌷1) सम्यकत्व मोहनीय, मिथ्यात्व मोहनीय, मिश्र मोहनीय, अनंतानुबंधी- क्रोध -मान- माया- लोभ तथा अप्रत्याख्यानी क्रोध- मान- माया- लोभ इन एकादश कर्म प्रकृतियों का क्षयोपशम होने से जीव श्रावकत्व की भूमिका में आता है यह निश्चयात्मक कथन है।
🌷 2) द्वादशी व्रत ,एकादश प्रतिमा, मार्गानुसारी जीवन के 35 गुण,21 शुभ लक्षण आदि से युक्त जीव श्रावक कहलाता है। यह व्यवहारिक अपेक्षा का कथन है।