वस्तु के स्वरूप को यथार्थ रूप से जानना ज्ञान है। जानने की शक्ति रूप ज्ञान आत्मा का स्वाभाविक गुण है। 🟢जो कर्म आत्मा की ज्ञान शक्ति को आवृत करे,उसे ज्ञानावरणीय कर्म कहते हैं।🟢 यह कर्म, जैसे आंखों पर बंधी हुई कपड़े की पट्टी के देखने में बाधा डालती है, उसी प्रकार ज्ञानावरणीय कर्म भी आत्मा को वस्तु पदार्थ का यथार्थ ज्ञान करने में बाधा डालता है।
🟢ज्ञानावरणीय कर्म के उदय में आत्मा का ज्ञान गुण आवृत अवश्य होता है, किंतु वह ज्ञानशून्य नहीं हो सकता। जैसे काली घटाओं से आकाश ढक जाने पर भी दिन रात का भेद जाना जा सके उतना सूर्य का प्रकाश अवश्य रहता है। उसी प्रकार प्रगाढ़ ज्ञानावरणीय कर्म का उदय होने पर भी जीव अपने स्वरूप में कायम रह सके उतना ज्ञान तो उसको अवश्य अनावृत रहता है। अन्यथा जीव जड़ जैसा बन जाएगा।
⭐यह ज्ञानावरणीय कर्म पांच प्रकार के होते हैं :-
🔸1) मति ज्ञानावरणीय
🔸2)श्रुतज्ञानावरणीय
🔸3) अवधिज्ञानावरणीय
🔸4 )मन:पर्यव ज्ञानावरणीय
🔸 5) केवल ज्ञानावरणीय
🔹इस कर्म की उत्कृष्ट कृति स्थिति 30 कोड़ा कोड़ी सागरोपम की होती है और जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त की है।
*ज्ञानावरणीय कर्म बंध के हेतु*
🌷1 )ज्ञान या ज्ञान के साधनों से द्वेष करना। 🌷2) ज्ञान साधनों को गिराना फाड़ना। 🌷3) ज्ञान के साधनों को जलाना (जैसे दीपावली पर्व में पटाखे फोड़ना। 🌷4 )ज्ञान साधनों को किसी भी अपवित्र गंदे स्थान पर रख देना।🌷 5) पेन, पेंसिल से कान कुरेदना या उन्हें नाक मुंह पर डालना।🌷 6) कागज या समाचार पत्र पर बैठना ,खाना, सोना ,खड़े रहना । 🌷7) लिखित अक्षरों पर पांव रखकर चलना।🌷 8) रूपए- पैसे पुस्तकें आदि साथ रखकर पेशाब करना, खाना-पीना।🌷 9) जूठे मुंह से पानी पिए बिना बोलना। 🌷10) शक्ति होते हुए भी ज्ञान न पढ़ना, न प्राप्त करना। 🌷11) प्रमाद के कारण पढा हुआ भूल जाना। 🌷12) अध्ययन करने वाले के अध्ययन में बाधा डालना।🌷 13) ज्ञान तथा ज्ञानी की निंदा करना- द्वेष करना। 🌷14) असमय अकाल में पढ़ना- अध्ययन करना।🌷 15) अशुद्ध पढ़ना लिखना और दूसरों को सिखाना।🌷 16) जिसके पास पढ़ा लिखा, उसका नाम छिपाना।🌷 17) ज्ञानी के प्रति विनय न रखना, उसका बहुमान न करना।🌷 18) पढ़ने में प्रमाद करने से