🌷यह जीवात्मा संसार की चार गतियों में और चौरासी लाख योनियों में भटकता हुआ अनंत- अनंत देह धारण करता है। अनंत पुद्गल परावर्तकाल…. अनादि भवसागर में अनंत बार भ्रमण किया करता है।
🌷 हे जीव! मोह शत्रु ने तुझे गले से पकड़ कर कदम-कदम पर सताया है। तू इस संसार को जन्म व मृत्यु के भय से घिरा हुआ समझ और उसे अत्यंत डरावना मान।
🌷हे मूढ जीव! स्वजन- परिजन एवं रिश्तेदारों के साथ के तेरे मीठे संबंधों के बंधन फिजूल है। कदम-कदम पर तुझे इस संसार के नए-नए हालातों की परेशानी नहीं उठानी पड़ती? पग पग पर तेरा पराभव नहीं होता है क्या? तनिक शांति से सोच तो सही!
🌷कभी तू तेरी संपत्ति से गर्विष्ठ होता है, तो कभी दरिद्रता के चंगुल में फंसकर दीन- हीन हो जाता है। तू कर्मों के परवश है। इसलिए तो जन्म जन्म में नए-नए रूप रचाता है ,अलग-अलग स्वांग बनाता है। संसार के रंगमंच पर तू एक अभिनेता ही है !
🌷कभी तेरा बचपन इठलाता है, कभी तरुणाई के आवेगों से उन्मत्त होकर तू अठखेलियां करता है, कभी दुर्जय बुढापे से तेरा शरीर जर्जरित हो उठता है ,और इस तरह अंत में तू यमराज के पंजों में फंस जाता है।
🌷इस संसार में भव के परिवर्तन के साथ पुत्र पिता बनता है और पिता पुत्र का रूप लेता है…. तू ऐसी संसार की स्थिति का जरा विचार तो कर !और ऐसे संसार के हेतुभूत पापों का त्याग कर! अभी भी नर तनु रुप शुभ सामग्री तेरे पास है, तू पुरुषार्थ कर!
🌷 हे जीव! तू जिस संसार में प्रतिदिन तरह-तरह की चिंता,दु:ख और बीमारियों की अग्नि ज्वाला में जलता है… झुलसता है…. उसी संसार पर तू आसक्त हुआ जा रहा है? पर हाय! इसमें तेरा क्या दोष? मोह की मदिरा तूने दबा दबा कर पी रखी है…. जिससे तेरी बुद्धि सुन्न हो गई है, बड़े अफसोस की बात है यह!
🌷 यह काल- महाकाल एक जादूगर है…. इस संसार के जीवों को वह सुख समृद्धि बताता है, ललचाता है और फिर अचानक यह सारी मायाजाल समेट कर लोगों को अबोध बच्चे की तरह ठगता है। यह संसार, एक इंद्रजाल से ज्यादा…. जादूगर की मायाजाल से ज्यादा और कुछ नहीं है!
🌷 ओ आत्मन! तू तेरे मन में जिन वचनों का चिंतन कर! यह जिन वचन ही संसार के तमाम भयों का नाश करेंगे। शमरस का अमृतपान करके तू मुक्ति का यात्री हो सकेगा। वह मुक्ति तमाम दुखों के संपूर्णतया विलय रूप है और शाश्वत सुख का एकमात्र धाम है।
*यह संसार दु:खमय व असार है। संसार में पूर्णतः कोई भी सुखी नहीं है। किसी को तन का दु:ख है, तो किसी को धन का दु:ख है। संसार का प्रत्येक प्राणी जन्म, जरा, मृत्यु ,व्याधि, वेदना, स्वार्थ एवं प्रपंचों के दु:खों से भरा हुआ है। इस प्रकार संसार विचित्र वह दु:खमय है ,तो उस पर मोह क्यों? उससे वैराग्य क्यों नहीं होता? यह विचार करना संसार भावना है।*