👉माँ शिशु के लिए गर्भावस्था से ही प्रथम गुरू होती है और जो माँ शिशु को “गर्भावस्था” में अपनी उत्कृष्ट चेतना के माध्यम से सुसंस्कारित करती है, वह माँ ही “पूर्ण+माँ” के साथ-साथ गुरूपूर्णिमा कहलाने योग्य भी होती है|
👉पिता शिशु के गर्भावस्था से छुटकारा पाने के उपरांत पालन-पोषण के अतिरिक्त गुरू होने के दायित्व का निर्वहन भी करता है इसलिए संसारिक तौर पर माता-पिता दोनों को ईश्वर से बड़ा स्थान दिया जाता है|
कहते हैं👉बगिया वही सुसज्जित और सुरक्षित रहती है जिसका माली सुयोग्य होता है!
लेकिन👉गुरू का दायित्व भी बहुत ही विलक्षण प्रतिभा का धनी होता है! किसी सुयोग्य शिष्य के लिए सुयोग्य गुरू का सान्निध्य भी गर्भावस्था की भाँति ही होता है जहाँ बोलना नहीं समझना ज्यादा पड़ता है! जिस प्रकार एक माँ अपने शिशु को गर्भावस्था में पालन-पोषण करते हुए सुसंस्कारित करती है! और जो माँ किसी कारणवश अपने शिशु को गर्भसंस्कारों से सुसंस्कारित नहीं कर पाती उन माताओं सहित पिता के अधूरे दायित्वों का निर्वहन भी गुरु के कंधों पर होता है जिसकी आपूर्ति गर्भस्थ चेतना की भाँति गुरु सान्निध्य से ही होती है|
👉अवचेतना के अंधकार में जीवनयापन करने वाले कुछ संसारिक माता-पिता और कुछ मित्रगणों की संगत से स्फूर्टित कुसंस्कारों को मिटाकर, सुसंस्कारों के समन्वय द्वारा उत्कृष्ट श्रेणी में स्थापित करने वाला गुरू ही👉
“गुरु+पूर्ण+माँ” यानी गुरूपूर्णिमा के पावन पर्व पर “परम पूज्यनीय” होता है|
👉संसार में एक गुरू ही तो महत्वपूर्ण है जिसमें माता-पिता और ईश्वरी गुणों का भण्डार रहता है|यह गुरूजन ही हैं जो शिशु अवस्था की यात्रा से वृद्धावस्था के साथ जुड़ी मृतावस्था की यात्रा के दौरान माता-पिता और स्वयं के द्वारा निहित सुसंस्कारों और संसार से मोक्ष यात्रा हेतु शाश्वत सूत्रों को शिष्यों में समाहित करते हुए सुरक्षित मार्ग प्रशस्त करते हैं, एवं सर्वोत्तम जीवन के लिए डाँट-फटकार से अनुशासित करते हुए मोक्षमार्ग के लिए फौलादी बनाते हैं, कर्मबंध संतुलन हेतु प्रायश्चित का प्रयोजन तो करते हैं साथ ही साथ👉 उद्दण्ड शिष्यों की उद्दण्डता पर विचलित नहीं होते बल्कि “वचन हिंसा” के परित्यागी गुरू, अहिंसात्मक “वात्सल्य वाणी के प्रताप” से ही शिष्यों का मार्ग प्रशस्त करके मुक्ति दिलाने में सक्षम होते हैं!
👉भारत भूमि पर ऐसे ही सुयोग्य वात्सल्य रत्नाकर गुरूजन👉ज्ञानवाणी से ज्ञानवर्षा करते हुए ज्ञानगंगा बहाते हैं और सदा-सदा के लिए स्व-पर के कल्याण हेतु नि:स्वार्थ दायित्व (कर्तव्य- धर्म) निभाते हुए, “समाधि महोत्सव” रचाते हैं!👉विश्वधरा पर ऐसे अहिंसात्मक आचरण से परिपूर्ण गुरु ही “गुरूपूर्णिमा” के सच्चे अधिकारी और पूज्यनीय होते हैं|
👉आज 5 जुलाई आषाढ़ सुदी “गुरू पूर्णिमा” के पावन शुभावसर पर मैं अपने गुरू वात्सल्यमूर्ति आचार्य 108 श्री ज्ञानभूषण जी महामुनिराज के चरणकमलों में कोटि-कोटि नमन करता हूँ और विश्व व्यापि समस्त जीवमात्र को गुरूपूर्णिमा की हार्दिक शुभकामनाएें देते हुए गुरूवर की दीर्घायु की कामना करता हूँ |-पारसमणि जैन “ज्योतिष विचारक एवं चीफ एडिटर” दिल्ली मो.9718544977