आत्म-शुद्धि नहीं मन-शुद्धि का पर्व है पर्युषण, आत्मा तो सदा से शुद्ध स्वरूपा है
🙏 क्षमा से प्रारंभ होकर🙏 क्षमा पर ही समापन होने वाला यह पर्व आत्म-शुद्धि का नहीं बल्कि मन-शुद्धि का पर्व है। आत्मा तो सदा से शुद्ध स्वरूपा हैं। पर्युषण अर्थात अपने को पूर्ण रूप से आत्मभाव में निवास करना। अपने शुद्ध स्वरूप का चिंतन-मनन कर आत्माभिमुख हो आत्मानुभव में तल्लीन हो जाना। जिन विकारों के कारण आत्मा संतप्त, क्षुब्ध और चंचल बनी हुई है उन विकारों को शांत कर आत्मोन्नति करना। पर्यूषण पर्व उत्तम क्षमा, उत्तम मार्दव, उत्तम आर्जव,उत्तम शौच, उत्तम सत्य, उत्तम संयम, उत्तम तप, उत्तम त्याग, उत्तम आकिंचन्य, एवं उत्तम ब्रह्मचर्य, धर्म के इन दशलक्षण को आत्मसात करने का पर्व है। प्रयास रहता है कि कर्मों का नाश कर आत्मा मोक्षगामी बने।
मन में अगर निर्मलता है , स्थिरता है तब ही धर्म जैसी पवित्र निधि उसमें प्रतिष्ठित होगी। मन की निर्मलता और शुद्धता के लिए मन में क्षमा-भाव और प्रेम-भाव दोनों का ही होना जरूरी है। बिना क्षमा के प्रेम उपजता ही नहीं और प्रेम बिना जीवन चलेगा नही। मन तब ही शुद्ध हो सकता है जब स्थिर हो। मन की स्थिरता के लिए शर्त है कि मन में कोई तनाव, बेचैनी, शांति,अधैर्य ना हो। मन को स्थिर अवस्था मे लाने का एक ही उपाय है क्षमा।
चित्त में कोमलता और व्यवहार में नम्रता होना मार्दवधर्म है। मार्दव अर्थात मान का नाश करना। मार्दव की आधारशिला विनय है। यह आत्मा का स्वभाविक परिणाम है।
सरलता, स्पष्टता, ईमानदारी, निष्कपटता, उदार हृदय होना, मायाचार रहित होना आर्जव धर्म को धारण करना है। मायाचार को त्यागना और मन, वचन, काय इन योगों का वक्र न होना ही आर्जव धर्म है।
पवित्र, स्वच्छ होना, शुद्व होना, निर्मल होना,निर्लोभ होना अपने में शौच धर्म को धारण करना है।धन, संपदा, परिवारी-जन आदि वस्तुएं मेरी हैं ऐसी अभिलाषा बुद्धि ही सर्व संकटों में मनुष्य को गिराती है।
जैसा हुआ हो, वैसा ही कहना सत्य का सामान्य लक्षण है। परन्तु अध्यात्म मार्ग में स्व-पर अहिंसा की प्रधानता होने से हित, मित व प्रिय वचनों को सत्य कहा जाता है।
संयम जीवन का कर्णधार है। पांच इंद्रियों स्पर्श,रस, गंध, चक्षु, कर्ण पर अंकुश के साथ पृथ्वी, जल,वायु, वनस्पति आदि के जीवों की रक्षा करने का संकल्प संयम धर्म है।
कर्म शत्रुओं का नाश करना, कर्मों को शांति पूर्वक भोगना तप कहलाता है। जीव हिंसा न करना तप कहलाता है। तप को संयम का एक अंग माना गया है।
संसार में हम जो कुछ प्राप्त करते हैं वह नहीं बल्कि जो कुछ हम त्यागते हैं वहे हमें धनी बनाता है। दुनियों को प्रेम, मैत्री, त्याग भावना से ही जीता जा सकता है।
आकिंचन एवं अपरिग्रह परस्पर पूरक हैं। अपरिग्रह व्रत है और आकिंचन आत्मा का धर्म है,स्वभाव है। अहिंसा का पक्षधर आकिंचन हमें सिर्फ जरूरी चीजों के संग्रह का संदेश देकर वर्तमान की आर्थिक विषमताओं एवं उनके कारण उपजे आतंक,हिंसा का समाधान प्रस्तुत करता है।
समस्त विषय-वासना का निरोधकर निज आत्मा में चरना, रमना उत्तम व्रह्मचर्य है। ब्रह्मचर्य धर्म स्वास्थ्य एवं नारी के प्रति सम्मान और सुरक्षा के प्रति आश्वासन है।
सभी प्राणी सुखी होना चाहते हैं। क्रोध, विषय-विकार हर काल में दुख के कारण हैं। विकारी-भावों का परित्याग और उदात्त भावों का ग्रहण सभी के लिए सामान रूप से हितकारी है। यही इस पर्व की सार्वभौमिकता का आधार है। इसीलिए यह पर्व सबका है और सिर्फ दस दिन का ही नहीं सर्वकालिक है।
इस पर्व कल में साधक चिंतन करता है- मैं कौन हूं, मेरा स्वरूप क्या है? हम दूसरों के संबंध में जितना सोचते हैं उसका शतांश भी अपने बारे में नहीं सोचते। प्रश्न है- मैं कौन हूं। तो तुरंत हम अपना नाम बता देते हैं। नाम तो इस नश्वर शरीर को मिला है। हम तो शरीर से भिन्न कुछ और हैं। जीवन भर हम इस भ्रम में जीते हैं कि मैं देखता, मैं चल रहा हूं, सुन रहा हूं। जबकि देखती हमारी आंखें हैं, चलते पैर हैं, सुनते कान हैं। मृत्यु पश्चात सबकुछ यहीं रह जाता है। किंतु वह न देखता है, न सुनता है, न चलता ही है। तब ऐसा क्या निकल गया जो जिसके न रहने पर सभी अंग निष्क्रिय हो गए। जो चला गया बस वही ‘मैं’ था। लेकिन हम कभी इस ‘मैं’ के बारे में न जानना चाहते हैं न ही सोचते ही हैं ।
जैन दर्शन में कहा गया है- ‘आत्मा को पहचानो, अपने को जानो।’ जिसने एक आत्म-तत्व को पहचान लिया उसने सब को पहचान लिया। साधक जब अपने आप को पहचानने लगता है तभी सम्यक-दर्शन का अलौकिक प्रकाश प्रस्फुटित होता है। सम्यक-दर्शन होते ही आत्मा वीतराग-भाव को प्राप्त कर परम पद को प्राप्त करती है। यही साधना का अंतिम लक्ष्य है, जो इस पावन-पर्व की पुनीत प्रेरणा है।
जज (से.नि.)