जुड़ना भी है और तोड़ने वालों की पहचान कर उनसे परहेज भी करना है

जुड़ना भी है और तोड़ने वालों की पहचान कर उनसे परहेज भी करना है
सर पर अगर बाल घने हो तो हमारे लिए मुकुट बन जाते हैं। हमारी रूप-सज्जा में चार चांद लगा देते हैं। लेकिन यही बाल अगर 2-2-4-4 की गिनती में सर पर इधर-उधर बिखरे हुए हों तो हम अपनी इस दुर्बलता को छुपाने के लिए सर पर टोपी पहनना शुरू कर देते हैं। जितना हम हमारे सर पर घने बाल हों, सजे सँवरे हों इधर-उधर बिखरे हुए ना हों इस के लिए सतर्क रहते हैं उतने कभी अपने आप को बिखरने से बचाने में और संगठित करने में जागरूक नहीं रहे। यही कारण है किहमारे अलग-थलग पड़ने का फायदा उठा कर हर कोई हमारे तीर्थों को हानि पहुंचा कर, हमारे साधू-संतों की अवमानना करके हमें टोपी पहनने के प्रयास में सफल हो जाता है।
कहते हैं जैन कुल में जन्म लेना श्रेष्ठ है। लेकिन अपनी श्रेष्ठता को बनाए रखने के लिए क्या कभी सजग और सतर्क रहे हैं या आज भी हैं? इतिहास कहता है कि हमारी समाज में ऐसी-ऐसी विभूतियाँ थीं जिनसे राज्य-सत्ता चलती थी। लेकिन यह तब की बात है जब हम एक थे, इकट्ठे थे। कुछ परिस्थितियां और कारण ऐसे बने कि हम एक से अनेक हो गए, अनेक में से भी अनेक बनते चले गए। यह अलगाव क्यों? जबकि हमारे पूज्य एक हैं, आराध्य एक हैं, हमारा मंत्र एक है, हमारा लक्ष्य एक है। केवल लक्ष्य तक पहुंचने के मार्ग में थोडा अंतर है।
लेकिन अलग रास्तों पर चलने का मतलब यह तो नहीं कि हम खुद भी अलग हो जाएं। उससे भी कठोर और आत्मघाती बात यह कि इस अलगाव का प्रदर्शन भी करें। अपना झण्डा ऊंचा करने के लिए अपने ही सहयोगी के झंडे के डंडे को काटने लगें। टूटते-बिखरते हम लोग करोड़ों से लाखों में रह गए। अगर इस स्थिति को रोकने के लिए प्रयास नहीं किए गए तो एक दिन आएगा कि हम अपने आपको ढूंढते रह जाएंगे।
हम तो अध्यात्म मार्ग के राही हैं। अध्यात्म मार्ग में तो कोई प्रतिद्वंदी नहीं होता। सभी सहयात्री होते हैं। किसी की सफलता दूसरे की विफलता का कारण नहीं बनती। किसी एक को मोक्ष मिलता है,सद्गति मिलती है तो इसका मतलब यह नहीं रेलवे की बर्थ की तरह दूसरे को नहीं मिलेगी। पूरा विश्व मोक्षगामी हो सकता है। तो प्रतिद्वंदिता किस बात की, भेदभाव किस बात का? धर्म-मार्ग की दौड़ में आगे-पीछे होने का मलाल क्यों और किसलिए?
एक और आश्चर्यजनक बात है हम आपस में रिश्ते-नाते, विवाह-शादी, आहार-व्यवहार सब बिना इस बात का भेदभाव किए करते हैं कि तुम कौन से मार्ग के रही हो और हम कौन से मार्ग के पथिक हैं। फिर उस बिंदु पर जाकर जहां सारे किन्तु-परंतु समाप्त हो जाते हैं, सारी विषमताएं, भेद-भाव मिट जाते हैं,हमारे मन में यह क्यों भाव आता है कि कोई हमसे अलग है और हम किसी से अलग हैं। देवालय, धर्म, धार्मिक पर्व सभी जुड़ाव का माध्यम हैं। आइए अतीत से कुछ हट कर करें। दूरियों को नज़दीकियों में बदलने का संकल्प लें।
पर्यूषण पर्व वस्तुतः सारे मनभेद को विस्मृत कर अपनों को साथ लेकर, अपने से जुडने और विकारों से दूर रहने का पर्व है। यह महापर्व मन-शुद्धि का पर्व है। आत्मा तो सदैव शुद्ध स्वरूपा है। यह तो मन है जो विकारों को आमंत्रित करके कर्मों का बंध करता है। विकारों से दूर रहें, अशुभ कर्मों का बंध न हो, लोक-परलोक दोनों को सँवारने के लिए मन का निर्मल बना रहना जरूरी है। श्री भगवान महावीर देशना समिति द्वाराअठारह दिवसीय पर्युषण पर्व आराधना 2020 नया अभियान शुरू हुआ है। इन 18 दिवस में हम प्रथम 8दिन हम अपने 8 कर्मों का क्षय कर के अपने अंतर को निर्मल बना लेते हैं। मन में निर्मलता आने पर 10धर्मों को अपने अंदर आत्मसात करअपने लक्ष्य मोक्ष मार्ग की एक सोपान और चढ़ जाते हैं।
हम लोग अलग तो कभी नहीं थे लेकिन इस प्रयास से और नजदीक आ जाएंगे। जनबल, धनबल और मनबल तीनों रूप से संगठित और सशक्त बनेंगे। हमें दोहरी सजगता वरतनी है। जुड़ना भी है और तोड़ने वालों की पहचान कर उनसे परहेज भी करना है।कोरोना काल में अपने देश में ही नहीं विदेशों में भी हमारी शाकाहारी और जीवनपद्धति को सराहा गया है,अपनाया गया है। यही समय है जब हम एक जुटता दिखा कर जैनधर्म को जनधर्म बना दें।
लक्ष्य एक, आराध्य एक है, एक ही मंत्र जपेंगे।
अठ दस मिलकर होंगे अठारह हम नवदीप बनेंगे। हम ज्योति, अहिंसा-अनेकांत कीरोके नहीं रुकेंगे। पंथवाद के अँधियारे को निश्चित दूर करेंगे।
👉अंक अगस्त में डा. निर्मल जैन जज (से.नि.) जी का अद्भुत लेख