धन को भोगने के लिए धन को छोडने की कला चाहिए-डा.निर्मल जैन (से.नि.जज)
धन को भोगने के लिए धन को छोडने की कला चाहिए
लोभ, दशलक्षण धर्म का चतुर्थ अंग। लोभ या ललाच का संबंध मनुष्य के भीतर पनप रही उस हीन भावना से है जिसके अनुसार वह स्वयं को खोखला मानता है। उसी खोखलेपन को भरने के लिए लालच का सहारा लेता है। जब कोई हमारे लालच को जान जाता है तभी वो हम पर हावी होता है। अगर वो लालच हटा दिया जाए तो कोई परिस्थिति या बड़े से बड़ी शक्ति भी हमें अपने आधीन नहीं कर पायेगी। लोभ मांगता है, संतोष आनंद देता है। लोभ छीनता है, संतोष बांटता है। लोभ बलात कब्जा करता है,संतोष समर्पण करता है।लोभ झुकता है, संतोषी के आगे सब झुकते हैं ।
संत रैदास के पड़ोसी सेठ ने गंगा को अर्घ्य चढ़ाने जाते समय संत से कहा आप भी चलो। रैदास ने कहा –मन तो मेरा भी बहुत है। किंतु किसी को आज ही जूते बनाकर देने का वचन दिया है। यदि आज जूते नहीं दे सका तो मेरा वचन भंग हो जाएगा और गंगा के किनारे पर पहुँच कर भी मन यहीं लगा रहेगा। ऐसे में पुण्य कैसे मिलेगा?
सेठ अपने हाथों से रैदास का अर्घ्य गंगा को अर्पित करना चाहते थे। उन्होंने कहा आप कहो तो मैं आपकी तरफ से चढ़ा आऊँ। रैदास बोले- इतना कहते हो तो यह अर्घ्य ले जाओ। लेकिन इसे तभी चढ़ाना जब गंगा खुद लेने आएं।
गंगा किनारे पहुंच पूजा के बाद सेठ रैदास का अर्घ्य हाथ में लेकर गंगा से उसे स्वीकार करने की विनती करने लगे। तभी अचानक ही एक बड़ी सी लहर आई और उनके हाथ से अर्घ्य लेकर चली गई। गंगा ने संत का अर्घ्य स्वीकार किया। एक चमत्कार और हुआ – जिस हाथ से गंगा की लहर संत का अर्ध्य ले गई थी उसी हाथ में एक स्वर्ण-जडि़त कंगन भी छोड़ गई थी।
दैवी-आभा से जगमगाता कंगन गंगा की ओर से रैदास के लिए उपहार था। अद्वित्तीय कंगन देख कर सेठ का मन डोल गया। घर आते ही सेठ ने कंगन सेठानी को भेंट कर दिया। सेठानी कंगन पा खुश होकर बोलीं – दूसरा कहां है? कोई उत्तर न पा सेठानी ने व्रत लिया कि दूसरा कंगन मिलने के बाद ही अन्न-जल गृहण करेंगी। सेठ दूसरा कंगन कहां से लाते? सेठ अपने ही जाल में फंसे पछता रहे थे। उन्हें उनके लालच और बेईमानी की सजा मिल रही थी।
धन के पीछे भागने वाला धन को भोगता थोड़े ही है। धन की रक्षा करता है, उसकी भोगने की क्षमता लुप्त हो जाती है। धन को भोगने के लिए धन को छोडने की कला चाहिए। लोभ-लालच से आच्छादित मन, मृग-मरीचिका में भटक वो दूसरों को नहीं स्वयं को ही ठगता रहता है। दूसरों को छलने से स्वयं की आत्मा में छाले पड़ जाते हैं और वे रिसते रहते हैं। मानव बहुरूपिया हो गया है, उसका स्वभाव जटिलताओं का केन्द्र बन गया है। व्यापार में, सम्बन्धों में और अड़ोस-पड़ोस में बसने वालों के प्रति हर किसी के साथ और हर स्थान पर लोभ एवं स्वार्थ-सिद्धि की तलाश करता है। भगवान के आगे भी वह अपनी लोभी बुद्धि का कमाल दिखाये बगैर बाज नहीं आता। भगवान को भी ठगता है, उनसे भी सौदेबाजी करता है। आस्था, भक्ति,श्रद्धा, दान सभी कुछ न कुछ पाने का सोपान माध्यम बना लिए हैं।
हम अपने कपड़े, जूते नाप के ही लेते हैं। अपने उपयोग और उपभोग में आने वाली हर वस्तु को नाप-तौल कर ही खरीदते हैं। लेकिन हमने लालच का कोर्इ माप नहीं बनाया है। यह लोभ धन-संपत्ति तक ही सीमित नहीं रहा है। सत्ता की लालसा जब जागती है तो सारे धर्म और नैतिकता के बंधन टूट जाते हैं। इस लोभ के कारण ही समाज में अव्यवस्था तो फैलती ही है, यह समस्त भ्रष्टाचार का जनक भी है। लालच ही हमें अनुचित तरीकों से व धर्म, अधर्म, कर्तव्य, अकर्तव्य, तथा आचार अनाचार का विचार किए बिना पदार्थों को प्राप्त करने को उकसाता है। हमें अपराधी के साथ ईश्वरीय नियमों के प्रति भी दोषी बना देता है।
महावीर के अनुसार -प्राप्त को पर्याप्त मान कर हमें अपने लोभी मन पर नियन्त्रण करना चाहिये। उस निर्ग्रंथ के प्रति आस्था और सांसारिक लोभ एक दूसरे के विपरीत हैं। इसलिए, हमें यह प्रयास करना है कि हम इस लोभ की दिशा को बदल दें। धन, जीवन-निर्वाह का साधन है साध्य नहीं। इस लोभ-लालच की दिशा को सांसारिक चीजों से हटाकर परमार्थ एवं उस सर्व-शक्तिमान की ओर मोड़ दें। तब ही हम कितनी ही विपदाओं से तो दूर रहेंगे ही जीवन के वास्तविक आनंद को भी पा लेंगे।
जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन