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Home›लेख-विचार›मेरी तो बस हथेली ही गीली हुई👉डा.निर्मल जैन(से.नि.जज)

मेरी तो बस हथेली ही गीली हुई👉डा.निर्मल जैन(से.नि.जज)

By पी.एम. जैन
September 2, 2020
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मेरी तो बस हथेली ही गीली हुई 👉डॉ. निर्मल जैन (जज)

          दशलक्षण पर्व का समापन हो गया। कोरोना-काल में भी अपने परिवार और साथियों के स्वास्थ्य को दाँव पर लगा कर, प्रकट रूप से दस दिन सुबह-शाम मंदिरजी में पूरे समय तक धार्मिक चोला पहने रहा। लेकिन,

          पर्व बीते अभी कुछ घंटे ही बीते हैं। मैं फिर से जिंदगी के गणित में दो और दो मिलाकर पांच करने की उपक्रम में जुट गया। बिसरा दिये धर्म के सब लक्षण, सब सूत्र। धन-अर्जन करने में साधनों की शुद्धि और अशुद्धि  का भी ध्यान नहीं रहा।

          मंदिर जी से घर जाकर पार्किंग में अपनी कार इस तरह खड़ी कर दी कि आसपास वालों को बहुत दिक्कत हुई। उनकी आपत्ति करने पर मेरा सारा संयम, विनय, मर्यादा सब तिरोहित हो गए। गलती मेरी ही थी फिर भी मेरे मन-वचन-काय तीनों हिंसक हो गए।

          बीता समय धर्म में खर्च हुआ, व्यापार अव्यवस्थित हुआ। अधीनस्थों को प्रताड़ित करते समय विनम्रता-शुचिता का दूर दूर तक पता नहीं रहा। मन की कषाय तनिक भी कम नहीं हुई। यह तब पता चला जब वाट्सअप्प पर अपने चाटुकारों के अलावा अन्य का ज्ञानपूर्ण संदेश देख कर मन पहले की तरह ही वितृष्णा से भर उठा।  

          बाह्य-जगत के आक्रोश में भूल गया चित्त की कोमलता और बड़प्पन की गरिमा। छोटों की उद्दंडता, बड़ों की जरा सी भूल भी खलने लगी। खाने-पीने के सारे नियम-संयम टूट कर जीवन फिर बरसाती नदी की तरह उन्मत्त होकर उफान लेने लगा। जो कुछ त्यागा उस सबका कोटा पूरा करने टूट पड़ा।

          मैं हूँ ही ऐसा। दस दिन क्या अब तक की तरह पूरी उम्र भी लगातार पर्व मनाता रहूँ तो भी नहीं सुधरने वाला। पर्व के दिनों में मैं मंदिरजी में हो कर भी सांसरिक उठा-पटक में डूबता-उतरता रहता हूँ। अभिषेक-पूजन के समय मन सदा आशंकित ही रहा कि कहीं कोई मुझसे पहले जल-कलश ना उठा ले, मुझसे पहले अर्घ्य न चढ़ा दे।

          मेरा मायाचर भी निराला है। इससे भी कोई फर्क नहीं कि मैं तीनलोक के नाथ सामने हूँ। मेरी आंखें किताब पर, होठ छपा हुआ बोलते रहते हैं। कान मंदिर जी के गेट की आहट पर लगे रहे कि कोई कोरोना नियमों की अनदेखी चेक करने तो नहीं आ रहे। कुछ ऐसा ही हूँ मैं। न श्रद्धा, न आस्था बस दिखावा और नियम-संयम तोड़ने का पाप कर, पुण्य अर्जित करने वाला।

          शुरू में लगा महापर्व तपती धूप में सावन की फुहारों की तरह कषायों का सब कचरा धोने आए हैं। तन-मन निर्मल हो जाएंगे। लेकिन बस नाम ही निर्मल रहा बाकी सब यथावत। धर्म-वर्षा हुई। मगर उस बरसात की तरह कि लेने के लिए हाथ सीधे किए तो मेरी हथेली ही गीली हुई, ठहरा कुछ नहीं। बाकी का पता नहीं।

          अपने प्रति अपराध-बोध के साथ शंका भी मन में उपजी कि -यह जिस तरह से पर्युषण पर्व या धार्मिक क्रियाओं में धर्म प्रभावना करता हूँ उनसे दीर्घकालिक प्रभाव भी गृहण होता है या सिर्फ खाना-पूर्ति ही होती रहती है। कोई करेगा मेरी जिज्ञासा का समाधान?जज (से.नि.) 👉डॉ. निर्मल जैन

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