क्षमा अतीत को तो नहीं किन्तु भविष्य अवश्य बदल देती है👉डा.निर्मल जैन(से.नि.जज)

क्षमा अतीत को तो नहीं किन्तु भविष्य अवश्य बदल देती है 👉अगर मैं अपने आप से प्यार करता हूँ और हमेशा खुश रहना चाहता हूँ, मैं अपने पारिवारिक, सामाजिक, व्यावसायिक रिश्तों को मधुर बनाना चाहता हूँ। जीवन में सफलता की सीढियाँ चढ़ना चाहता हूँ। तो मुझे बस अपने ह्रदय मे एक ही गुण प्रतिष्ठित करना हैं, जिव्हा से एक ही शब्द कहना सीखना है– ‘क्षमा’, ‘सॉरी‘, ‘माफ़ करें’। भाषा चाहे कोई भी हो, दिल की गहराइयों से निकले यह शब्द-समूह जीवन में चमत्कार कर सकते हैं।
इन दिनों हम अपने प्रति क्षमा-शील और दूसरों के प्रति कठोर होते जा रहे हैं। क्षमा तभी पूर्ण और सार्थक होती है जब हम स्वयं तो क्षमा मांगे ही उसके साथ समस्त जीवों के प्रति अपने मन से सभी दुर्भावनाओं को दूर कर उन्हे भी क्षमा कर दें। जब मैं किसी को माफ करता हूँ तब मैं अतीत को तो नहीं बदलता लेकिन निश्चित रूप से अपने भविष्य को बदल देता हूँ।
जिन्होंने हमें ठेस पहुंचाई है जब हम उन लोगों के प्रति भी भले की कामना करने लगें वहीं से क्षमा का प्रारंभ होता है। किसी को छोटा होने का अहसास कराये बिना क्षमा कर देना एक बहुत ही संवेदनशील कार्य है।अपनी गलती की क्षमा मांगना कमजोरी नहीं,आंतरिक शक्ति का द्योतक है। -तीर्थंकर महावीर।
लिखते समय वाक्य बहुत लंबा हो जाता है तो मैं तुरंत ही पूर्ण विराम लगा देता हूं। लेकिन किसी के प्रति मेरे अंतकरण में जो वैर-भाव है वो लंबे समय तक स्थाई ना हो जाए उसके लिए क्षमा का पूर्ण विराम लगाने की मैं नहीं सोचता। किसी ने मेरे प्रति अपराध किया, मैं बदले की भावना से उसे सजा ही देता रहूँ। अथवा मेरे किसी अपराध की मुझे सजा ही मिलती रहे। ‘जैसे को तैसा’ का भाव रख कर कहीं मैं ही समाप्त न हो जाऊं। इन परिस्थितियों में, इन आशंकाओं के साथ क्या मैं शांत और प्रसन्न बना रहुंगा? इस भागती, दौड़ती दुनिया में मेरा मानसिक संतुलन सही है तो उसका पूरा श्रेय क्षमा को जाता है।
जैनधर्म का पर्युषण-पर्व क्षमा से प्रारंभ होकर क्षमा पर ही समापन होने वाला अपने आप मेन एक अद्भुत महापर्व है। हमारी सभी क्रियाएँ मन द्वारा ही संचालित और नियंत्रित होती हैं। इसलिए शेष इंद्रियाँ सन्मार्ग से भटकें नहीं इस मन को शुद्धता और निर्मल बनाए रखना अवश्यक है। मन की निर्मलता के लिए मन में क्षमा-भाव और प्रेम-भाव दोनों का ही होना जरूरी है। बिना क्षमा के प्रेम उपजता ही नहीं और प्रेम बिना जीवन चलेगा नही। मन तब ही शुद्ध हो सकता है जब स्थिर हो। मन की स्थिरता के लिए शर्त है कि मन में कोई तनाव, बेचैनी, शांति, अधैर्य ना हो। मन के ये सभी विकार तब तक बने रहते हैं जब तक मन में आक्रोश, प्रतिशोध, प्रतिकार की ज्वाला प्रज्वलित रहती है। इस ज्वाला को शांत कर मन को स्थिर अवस्था मे लाने का एक ही उपाय है क्षमा।
क्षमा ब्रम्ह है, क्षमा सत्य है, क्षमा भूत है, क्षमा भविष्य है, क्षमा तप है, क्षमा पवित्रता है, क्षमा ने ही संपूर्ण जगत को धारण कर रखा है। -वेदव्यास
जब हवाएं नहीं चलती तब पत्तों मैं कोई कंपन नहीं होता, दीपक की ज्योति ठहर जाती है। ऐसे ही मन में क्षमा धारण करते ही विकारों का अंधड़ ठहर जाता है। मानव मात्र से लेकर प्रभु से भी निकटता बढ़ने लगती है।क्षमा भाव उपजते ही वात्सल्य और प्रेम सहित न जाने कितने गुणों की श्रंखला आ जाती है। अंतस में कितनी ही सुख-सुगंधियों के पुष्प खिल जाते हैं। क्षमा की स्वीकृति विजय-आकांक्षा से नहीं वरना अपनी पहचान के लिए है।-जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन यह भी पढ़िए-
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