पुण्य-संचय के मामले में हम भी दिहाड़ी मजदूर हैं 👉कोरोना से बचने के लिए एक मात्र बचाव, लॉकडाउन हुआ। लॉकडाउन के कारण सारे व्यापारिक प्रतिष्ठान, उद्धोग, निर्माण, आवागमन, विक्रय व मनोरंजन-स्थल बंद हो गए। जो लोग इन सबसे अपनी रोजी-रोटी कमाते थे एक दो दिन बाद ही उनका उनका चूल्हा नहीं जला। क्योंकि उनकी स्थिति सुबह को कमाना और शाम को खा लेना वाली ही थी। ऐसा नहीं था कि उनके खर्चे बहुत थे, बल्कि आमदनी ही इतनी कम थी कि बचत का प्रश्न ही नहीं था। उनका उद्गिन होना स्वभाविक और औचित्यपूर्ण था।
लेकिन आश्चर्य हुआ जब सब के साथ हमारे पूजा-स्थल भी बंद होने पर हम लोग उन दिहाड़ी मजदूरों से भी ज्यादा बेचैन हो उठे। अपने परिवार और समाज के स्वास्थ्य को दाव पर लगते हुए बचाव के सारे नियम-कायदे तोड़ प्रशासन को धोखा दे धर्म कमाने में जुटे रहे। दो दिन में ही हमारी पुण्य-संचय की बेलेन्स-शीट के आंकड़े शून्य पर आ लगे। पुण्य? तो रोज कमाते रहे। मगर टिका नहीं शायद गुणवत्ता टिकाऊ नहीं थी!
बात समझ से परे रही। पुण्य और ज्ञान तो ऐसी विधाएं हैं जिन्हे ना कोई चुरा सकता है ना छीन सकता है और न कभी क्षीण हो सकती हैं। फिर ऐसा क्यों हुआ कि इतना धर्म-परायण? दिखने पर भी हमारे पास कुछ दिनों के लिए भी पुण्य का स्टॉक नहीं बचा। परिणामतय: -सांसें चलती रहें इसके लिए हमें रोज अनियमितताओं की राह से होकर संभावित संकटों को आमंत्रित करते हुए भी पुण्य कमाने निकालना पड़ा।
प्रतिबंधित काल में हम सभी श्रेष्ठीजन को जीवन-निर्वाह में कोई अभाव नहीं खला। क्योंकि हमने अकूत धन-सुविधाएं इकट्ठी कर रखी थीं। बस कमी पड़ी तो पुण्य की, धर्म की। सोचने की बात है कि पुण्य प्राप्ति के लिए भी तो हम रोज धर्म उपार्जित करते रहे। फिर वो पुण्य वो धर्म गया कहाँ? क्या हमारी पुण्य की तिजोरी में कोई खोट है अथवा जिसे हम अर्जित कर रहे हैं वो दही के रंग-रूप में चूना तो नहीं है? जो हमारी कर्म-नाशक प्रतिरोधक-शक्ति बढ़ाने के बजाय हमारे अंतर को खुरच-खुरच काट रहा है। हम शायद धन और पदार्थों के संग्रह में इतने पागल हुए कि धर्म क्या है और पुण्य मार्ग क्या है विवेक की कसौटी पर कभी परखा ही नहीं? जैसा किसी ने बता दिया, बहकादिया, समझा दिया, नर्क के दुखों से भयभीत कर दिया उसी सुविधाजनक मार्ग पर चलते रहे। परिणाम हुआ कि हम जो धर्म का साहूकार बनते थे, अल्प-काल में ही दिवालिया दिखने लगे।
वाह्य क्रियाओं में इतने उलझे की गुरुजनों की कुशल-क्षेम के प्रति भी अपने कर्तव्यों से उदासीन हो गए। हमारी लापरवाही के कारण उन्हे भी एकांतवासी (आइसोलेशन) होना पड़ा। यह भी नहीं सोचा कि वे तो अपनी पद-मर्यादा में बंधे इलाज भी नहीं करा सकते। अब उनका पुण्य, उनकी साधना ही उनकी रक्षा कर रही है, वरना हमने तो अपनी धर्मांधता में कोई कसर नहीं छोड़ी
हम अब भी नहीं खोज रहे कि कमी कहाँ है? हम “रिसीविन्ग-सेट” ही खराब ब्रांड का इस्तेमाल कर रहे हैं या हमने जो “टावर” लगा रखा है वो सही “सिग्नल” पकड़ पाने में असमर्थ है। सम्यक-वाणी का प्रसारण अपनी श्रेष्ठता के चरम पर है। कोई कमी है या विकृति है तो वो हम में ही है। हमारी पराधीन सोच में है। हमारे अंधविश्वास में, हमारे लकीरों को पीटने वाले अभ्यासी बनने में है। धार्मिक गतिविधियों को व्यापारिक और मनोरंजक रूप देने में है। जिस दिन हम अपनी सोच बदल लेंगे, धर्म का असली अर्थ और मर्म समझ अपनी क्रिया-प्रक्रिया के पीछे का सच जान लेंगे, उस दिन हमारा पुण्य का अक्षय भंडार कभी खाली नहीं होगा
👉सभी आगम, पुराण स्पष्ट हैं कि मुक्ति हमारे कर्म पर आधारित है, न कि क्रियाओं पर। क्रियाएँ कर्म नहीं होतीं। आध्यात्मिक जगत में कर्म का तात्पर्य कर्तव्य से है। काम करने से नहीं। कर्तव्य हमेशा पुनीत और पवित्र होते हैं। यह दसलक्षण पर्व भी तो हमें कर्तव्य पालन का ही अभ्यास कराता है। कर्तव्य का निष्ठापूर्ण पालन ही तो धर्म है। जिस दिन हम अपने कर्तव्य को जान कर उन पर आचरण करने लगेंगे तब हमारे 8 कर्म बिना किसी बाहरी क्रियाओं के किए ही नस जाएंगे। 10 धर्म अंदर प्रतिष्ठित हो जाएंगे। तब हम न8 रहेंगे न 10 और न 18 । हम हो जाएंगे इस 18 का जोड़ अर्थात 1 + 8 = 9 !आध्यात्मिक जगत में 9श्रेष्ठ संख्या है। हम भी वर्तमान के क्रिया-श्रेष्ठी नहीं अध्यात्म-जगत के श्रेष्ठ बन जाएंगे।