सुविधाओं पर इतनी निर्भरता न हो कि वे दुख का कारण बन जायें-डा.निर्मल जैन(से.नि.जज)
सुविधाओं पर इतनी निर्भरता न हो कि वे दुख का कारण बन जायें।
डॉ निर्मल जैन (जज)
खुशी एक ऐसा शब्द है, जिसे सुनते ही मन में “पॉज़िटिव फीलिंग्स” आनी शुरू हो जाती हैं। यह खुशी और कुछ नहीं मन की एक अवस्था है। अगर लोगों द्वारा की गई प्रतिकूल टिप्पणियों को हम नज़रअंदाज कर दें तो हर स्थिति में खुश ही रहेंगे। ज़रूरत है बस केवल एक सकारात्मक सोच अपनाने की। कोई फर्क नहीं पड़ता कि हम कौन हैं और किस अवस्था में हैं? खुशी, संतुष्टि और आनंद सब हमारे भीतर ही छुपा हुआ है। बस हमें उसे खोज निकालना है। इसके लिए पहले हम उस इंसान को खुश करें जिसे रोज आइने के सामने खड़े होकर देखते हैं, अर्थात स्वयं खुश रहना सीखें। हमारी खुशियों का पॉवर कंट्रोल हमारे ही पास है। यदि हम भीतर से खुश रहने के लिए तैयार हैं तो फिर हमारा हर काम अपने आप में अनूठा होगा, आनन्ददायी होगा।
हम सभी चाहते हैं कि कैसे भी, किसी भी प्रकार से खुशी मिल जाए। इसे पाने के लिए विभिन्न प्रकार के वर्कशॉप, आयोजन, महोत्सव भी करते हैं। लेकिन खुशी कोई आयातित बाहरी पदार्थ नहीं है। यह तो हमारी सोच की दिशा है। यह दिशा जब भी सकारात्मक होती है भीतर की नैसर्गिक ख़ुशी का रूप धर लेती है। रोज इन्द्रियों द्वारा भोगे जाने वाले सांसारिक भोग–विलास से मिली बाहरी ख़ुशी घर की छत पर रखी टंकी का वो पानी है जो रोज भरा जाता है और रोज खर्च हो जाता है। भीतर की नैसर्गिक ख़ुशी जमीन के अंदर से कुएं से निकलते पानी के उस निर्मल, शीतल अनवरत स्रोत की तरह होती है जिससे हमारा तन-मन और समूचा जीवन ही नहीं आत्मा भी आनन्दित हो उठती है।
निरंतर बहने वाले इस ख़ुशी के स्रोत को अगर कोई रोकते हैं तो वह हैं -हमारे मन में सक्रिय दुर्गुण और वासनाएं। हम बाहर से कितने ही अच्छे काम कर लें लेकिन अगर भीतर से खुश रहने के लिए तैयार नहीं है तो अच्छे से अच्छा काम भी यंत्र-वत बनकर रह जाएगा। बाहर से प्राप्त खुशी वास्तविक ना होकर अस्थाई रूप से प्राप्त खुशी की प्रतिछाया होगी। जैसे ही उस व्यक्ति या परिस्थिति जिससे हमने यह प्रतिछाया प्राप्त की है, हटेगी या अलग होगी वो ख़ुशी भी हमसे दूर हो जाएगी। स्थायी रूप से खुश रहने के लिए आवश्यक है कि हम अपनी खुशी अपने भीतर ही तलाश करें।
खुशी हर किसी की अपनी-अपनी मन की संतुष्टि में है। पैसे वाले के पास सब कुछ होने पर भी यदि वह और पैसा चाहता है तो इसी आकुलता में खुश नहीं है। इसके विपरीत निर्धन दो समय की रोटी खाकर संतोष की नींद लेता है तो सुखी है। मोह-युक्त धनी, कौड़ी-कौड़ी के लिए छटपटाते देखे जाते हैं, वैराग्य-युक्त व्यक्ति बिपन्नता में भी आत्ममुग्ध रहता है। हमारा जैसा भावना का स्तर होगा उसी के रूप में सुख-दुख की अनुभूति होगी। हमारे अंतर में उदार, दिव्य, सद्भावना का समुद्र उमड़ता रहता है तो हम हर समय प्रसन्न सुखी और आनंद रहते हैं। संकीर्ण-मना हीन भावना वाले राग-द्वेष से प्रेरित स्वभावी व्यक्तियों को यह संसार दुखों का सागर मालूम पड़ता है।
आज के चकाचौंध भरे माहौल में हमने आवश्यकताओं पर जीने के बजाय कामनाओं पर जीवन जीना सीख लिया। इन्द्रिय इन्ही बाहरी पदार्थों से सुख चाहती हैं। लेकिन बाहरी पदार्थ से कभी वास्तविक ख़ुशी न किसी को मिली है न मिलेगी। इन्हें तो रोज भरना रोज खाली होते रहना है। लेकिन इसका मतलब यह भी नहीं है कि सुख-सुविधाएं होनी ही नहीं चाहिए? महावीर के अनुसार -बिना सुविधाओं के जीवन संभव नहीं, बस इतना ज़रूरी है कि सुविधाओं पर इतनी निर्भरता न हो कि वे हमारे दुख के साधन व कारण बन जायें। दूसरों की ख़ुशी में अपनी खुशी देखना खुशी पाने का सबसे सरल उपाय है। जो ये जान जाता है वो प्राणी कभी भी दुखी नहीं होता है।
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