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धर्म-कर्म
Home›धर्म-कर्म›रावण के दश मुख नहीं थे!

रावण के दश मुख नहीं थे!

By पी.एम. जैन
October 25, 2020
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रावण के दश मुख नहीं थे
रामायण का कथानक बहुत प्रसिद्ध है लेकिन यह कथानक और इसके पात्रों के नाम अलग अलग धर्मों ही नहीं लेखकों के अनुसार भी कुछ परिवर्तित हैं। जैन परम्परा में भी रामायण कई आचार्यों द्वारा लिखी गई है। राम यशोरसायन, जैन रामायण, पहुम चरिउ और पद्मपुराण आदि। इनमें पद्मपुराण अधिक प्रसिद्ध है। पद्म नाम रामचन्द्र जी का है इसलिए उनके पौराणिक कथानक को पद्मपुराण नाम दिया गया है। जैन साहित्य में त्रेषठ शलाका महापुरुषों के जीवन चरित्रों का वर्णन होता है। 24 तीर्थंकर, 12 चक्रवर्ती, 9 बलभद्र, 9 नारायण एवं 9 प्रतिनारायण ये सब मिलकर 63 हुए। जो त्रिषष्ठि शलाकापुरुष कहलाते हैं। पद्मपुराण के अनुसार राम आठवें बलभद्र थें, लक्ष्मण आठवें नारायण और रावण आठवें प्रतिनारायण थे। प्रतिनारायण अत्यन्त बलशाली व बुद्धिमान विवेकी सम्राट होता है, वह अपने बल से तीन पृथ्वी को जीतकर अर्द्धचक्रवर्ती सम्राट बनता है और बहुत लम्बे समय तक सुखों का भोग करता हुआ निराबाध राज्य करता है। उसके 18 हजार रानियां होती हैं और 16 हजार मुकुटबद्ध राजा उसकी सेवा में तत्पर रहते हैं।
ऐसे प्रतिनारायण को अपने बड़े भाई बलभद्र के सहयोग से जीतकर नरायण अर्द्धचक्रवर्ती सम्राट बनता है। नारायण की भी प्रतिनारायण से अधिक विभूति होती है। यह सब डाॅ. शुद्धात्मप्रभा ने अपनी पुस्तक राम कहानी में विसतार से लिखा है।
जैन मान्यतानुसार रावण राक्षस वंशी था, उसके दश सिर नहीं थे, एक ही था। किन्तु उसका नाम दशानन था। इसका भी अलग प्रसंग है। रत्नश्रवा के यहां बालक के जन्म के समय कई विचित्र घटनायें हुईं। बहुत पहले मेघवाहन के लिए राक्षसों के इन्द्र भीम ने जो हार दिया था, हजार नागकुमार जिसकी रक्षा करते थे, जो बहुत कांतिमान था और राक्षसों के भय से इसे किसी ने नहीं पहना था। ऐसे हार को उस बालक ने अनायास ही हाथ से खींच लिया। बालक को मुट्ठी में हार लिये देख माता घबड़ा गई, उसने बालक के पिता को बुलाया, पिता ने यह दृश्य देखकर कहा यह अवश्य ही कोई महापुरुष होगा। माता ने निर्भय होकर वह हार उस बालक को पहना दिया। उस हार में जो बड़े बड़े स्वच्छ रत्न लगे हुए थे उनमें असली मुख के सिवाय नौ मुख और भी प्रतिबिम्बित हो रहे थे इसलिए उस बालक का नाम दशानन रखा गया।
जैन मान्यता के पद्मपुराण के अनुसार दशानन का रावण नाम कैलाश पर्वत उठाते समय की घटना के कारण पड़ा था। मान्यतानुसार दिग्विजय के समय रावण बालि से युद्ध के लिए तत्पर हो गया था, इस घटना से बाली ने दिगम्बरी दीक्षा ले ली। एक बार रावण नित्यलोक की रत्नावली कन्या से विवाह करके सपरिवार आकाशमार्ग से लोट रहा था। मार्ग में कैलाश पर्वत के ऊपर उसका विमान रुक गया। अपने मंत्री से कैलाश पर्वत पर बाली मुनि तपस्या कर रहे हैं यह सूचना पाकर क्रोधित हो दशानन ने अपने विद्याबल से बाली सहित कैलाश पर्वत उखाड़कर समुद्र में फेकना चाहा। पर्वत उठाया ही था कि बाली मुनि ने सोचा ऐसे तो इस पर बने अनेक जिनालय नष्ट हो जायेंगे और वन्दना करने वाले मनुष्य व अनेक प्राणी मर जायेंगे। उन्होंने अपने पैर के अंगूठे से पर्वत के मस्तक को दवा दिया, इससे दशानन अत्यंत व्याकुल होकर चिल्लाने लगा। क्योंकि उसका शरीर कैलाश पर्वत से दबने लगा था। करुण चीत्कार की रव के कारण तब से वह दशानन रावण के नाम से जाना जाने लगा। रावण की पत्नी मन्दोदरी की अनुनय पर बाली मुनि ने अपना अंगूठा शिथिल किया। बाल्मीकि रामायण के अनुसार शिवजी ने अपना अंगूठा दवाया था। शेष घटना लगभग समान है।
रावण में अनेक गुण होते हुए भी वह सीता पर मोहित हो गया और सीता का हरण कर लिया। किन्तु  उसका यह नियम था कि जब तक कोई स्त्री स्वयं नहीं चाहेगी तब तक वह उसे छुएगा भी नहीं। इसलिए उसने सीता को अनेक प्रलोभन दिये, बहुत समझाया पर सीता ने तो अन्न-जल भी त्याग दिया था। उल्लेख आता है कि बाद में रावण के परिणाम बदल गये थे, उसने सीता को वापिस करना चाहा किन्तु उसका बलशाली होने का अभिमान आड़े आ गया था और उसने कहा में राम को जीतने के बाद ही उन्हें सीता वापिस करूॅंगा। और वह युद्ध में राम के हाथों मारा गया। जैन ग्रंथानुसार नारायण के द्वारा ही प्रतिनाराण मारा जाता है, इस नियमानुसार राम के सहयोग से लक्ष्मण के द्वारा रावण मारा गया। संकलन-डा.महेन्द्र कुमार जैन “मनुुज”

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