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Home›धर्म-कर्म›धनतेरस-धन्य तेरस की जैन परम्परा में अवधारणा

धनतेरस-धन्य तेरस की जैन परम्परा में अवधारणा

By पी.एम. जैन
November 11, 2020
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कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी का दिन धनतेरस- ध्यान तेरस या धन्य तेरस के नाम से जाना जाता है। जनसामान्य में इस तेरस का सिर्फ इतनी हीजानकारी है कि इस दिन नवीन वस्तुओं को खरीद कर हर्ष-उल्लास मनाना। हिन्दू मान्यता अनुसार धन तेरस के दिन समुद्र मंथन से आयुर्वेद के जनक भगवान धन्वंतरि अमृत कलश लेकर प्रकट हुए थे। अमृत कलश के अमृत का पान करके देवता अमर हो गए थे। इसीलिए आयु और स्वस्थता की कामना हेतु धनतेरस पर भगवान धन्वंतरि का पूजन किया जाता है। कहते हैं कि इस दिन धन्वंतरि का जन्म हुआ था। किन्तु धन तेरस या धन्य तेरस मानाने का जैनधर्म की मान्यता भिन्न है।
जैनशासन में इस त्रयोदशी को क्यों मनाना चाहिये, इसका बहुत सुन्दर वर्णन किया है। यह तेरस १३ प्रकार के चारित्र की याद दिलानेवाला तथा तेरहवें गुणस्थान की महिमा दिखानेवाला पावन पुनीत दिन है, जैन संप्रदाय में इस दिन का आध्यात्मिक महत्व है। भगवान महावीर स्वामी ने केवलज्ञान प्राप्ति होने के पश्चात् ३० वर्षों तक इस पृथ्वी तल पर विहार कर भव्यजीवों को धर्मोपदेश दिया एवं कण-कण को निर्मल बनाते हुये पावापुरी नामक स्थान में जा पहुँचे, अभी तक प्रभु का विहार होता था, दिव्यदेशना खिरती थी, वे खड़े होकर आसन लगाते, विहार भी करते, अभी तक उनके चरण प्रवर्तमान होते थे, ये जितनी भी क्रियायें होती हैं वे सहज ही होती हैं। इच्छापूर्वक कोई भी क्रियायें नहीं होतीं। यह एक अकाट्य सिद्धांत है। भगवान का विहार (गमन) तथा दिव्य देशना आदि प्रवृत्तियाँ भव्यजीवों के पुण्य के उदय से होतीं हैं, जिस देश के प्राणियों का पुण्य विशेष होता है उस ओर भगवान का विहार अनिच्छा पूर्वक होता है। इस प्रकार पावापुरी में पहुँचकर, कार्तिक कृष्ण त्रयोदशी के दिन भगवान ने बाह्य लक्ष्मी समवशरण आदि का त्यागकर मन-वचन-काय तीनों योग का निरोध किया, निर्वाण प्राप्ति के कुछ समय पूर्व में योग निरोध प्रारंभ हो जाता है।
योग निरोध अर्थात् मन को स्थिर करना, चित्त का निरोध करना, किसी एक पदार्थ के ज्ञान सेचित्त का एकाग्र करना ध्यान है। आज का दिन वास्तविकता में ध्यान तेरस ही है, धन तेरस नहीं, आत्मिक गुणों की प्राप्ति ही सबसे बड़ा धन है। संसारी जीवों ने इस ध्यान तेरस को धनते रस बना दिया। वह धन भी धन नहीं है, जो नष्ट हो जाए, सच्चा शाश्वत धन तो वही है जो कभी नाश को प्राप्त न हो, वही परम धन है जो पारलौकिक सुख को प्राप्त करावे। वीर प्रभु के योग निरोध करने से यही तिथि धन्य हो गयी। इसलिये यह ‘धन तेरस का दिन’ पर्व बन गया। 
धन तेरस की कथा – जैन सम्प्रदाय में धन्य तेरस से सम्बंधित एक कथा प्रसिद्ध है। मालव के उज्जयिनी गुणमाल नामक गरीब परन्तु सदाचारी श्रावक रहता था। उसकी गुणवती नाम की एक लावण्यवती और सुशीला धर्मपत्नी थी। उनके गुणवंत नामक एक सुन्दर सद्गुणी पुत्र था। इनको दुर्दैव से दरिद्रावस्था प्राप्त होने से वे मजदूरी से गुजारा करते थे। नगर में बार-बार मुनीश्वर आहार के लिए आते थे। किन्तु अपनी दरिद्रता के कारण ये आहार दान नहीं दे पाते थे।
एक दिन सोमचंद्र नामक सप्तऋद्धि-संपन्न एक निग्र्रंथ मुनीश्वर जिनमंदिर में आये। गणपाल श्रेष्ठी ने अपनी स्त्री मुनीश्वर को दान देने एक-एक दिन उपवास करके उदरनिर्वाह करने का निर्णय किया। फिर वे दोनों सोमचंद्र मुनीश्वर की वंदना के साथ दोनों हाथ विनय से जोड़कर उनसे बोले- स्वामिन् ! हम दारिद्र्य से बहुत पीड़ित हुए हैं। उसके परिहार के लिए कुछ व्रत-विधान कहें। आप चातुर्मास भी यहाँ कीजिए ऐसी हमारी नम्र प्रार्थना है। उनका यह वचन सुनकर वे मुनिवर्य दयार्द्र बुद्धि से बोले- हे भाग्योत्तम ! तुम ‘मंगलत्रयोदशी’ यहव्रत पालन करो। इससे तुम्हारा दारिद्र्य नष्ट होकर तुम सब तरह से अवश्य सुखी होगे। ऐसा कहकर उन्होंने चातुर्मास की सम्मति दे दी। फिर यह दंपती उस व्रत की विधि पूछकर व्रत ग्रहण करके वंदन करके घर में आ गये। आगे चातुर्मास प्रारंभ हो गया। फिर वह गुणपाल श्रेष्ठी और उनकी धर्मपत्नी एक दिन के बाद एक दिन अनतराल से उपवास करने लगे। उपवास के दिन आहारदान की तैयारी करके उन मुनीश्वर को आहारदान देने लगे।
इस प्रकार चार मास आहारदान देने का निश्चय किया। इस प्रकार चातुर्मास में आहार देते-देते कार्तिक कृष्णा १३ के दिन उन्होंने व्रत-पूजा-विधान करके उन सोमचंद्र मुनीश्वर को महाभक्ति से आहारदान दिया। बाद में उनको भेजने के लिए वह गुणपाल श्रेष्ठी उनके साथ उद्यान की ओर निकला, मुनिराज ने श्रेष्ठी को ‘सद्धर्मवृद्धिरस्तु’ ऐसा आशीर्वाद देते हुए घर वापिस जाने को बोलाऔर अपना पादस्पर्शित एक पत्थर प्रदान किया। गुणपाल बड़े आदर से पत्थर घर लाकर पूज्यने दिया है ऐसा कहकर उसकी पूजा की, इतने में उस श्रेष्ठी का गुणवंत नाम का कुमार अपने हाथ में खुरपा लेकर खेलते-खेलते उधर आ गया। उसी समय वह खुरपा उसके हाथ से उस पत्थर पर गिरा। वह खुरपा सुवर्णमय बन गया।  सप्तऋद्धि-संपन्न-मुनीश्वर के हाथ से मिलने से उसमें पारस का गुण था, जिसके संपर्क से लोहे का सोना हुआ। यह वार्ता नगर में शीघ्र ही चारों तरफ फैल गई। प्रत्यक्ष सब चमत्कार जानकर लोगों को जैनधर्म का महत्व समझा। सबलोगों ने श्रेष्ठी की बहुत प्रशंसा की। वह दिन कार्तिक कृष्णा १३ रहने से तथा मंगलवार होने से उसको ‘मंगल त्रयोदशी’ ऐसा लोग कहने लगे। उस समय से ही ‘धनत्रयोदशी’ नाम भी प्रचार में आया है। आगे यह गुणपाल श्रेष्ठी बड़ा श्रीमान् होकर दान पूजादि क्रिया करते-करते आनंद से काल बिताने लगा। इस प्रकार उन श्रेष्ठी ने चातुर्मास में लिया हुआ नियम यथावत् पालन कर उसका उद्यापन किया, इससे उनको उत्तम सौख्य प्राप्त हुआ।👉डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’, इन्दौर 9826091247
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