सदैव ही हर सामाजिक, धार्मिक या राजनैतिक संस्था के वित्तीय मामलों को लेकर विवाद उठते ही रहते हैं। हमारे द्वारा किसी को तनिक सा भी दान या सहयोग रूप में दिए हुए धन या पदार्थों को लेकर हमारी यह सोच बनी रहती है कि लेने वाले ने उस सामग्री का दुरुपयोग तो नहीं किया है?क्या जिस निमित्त दिया गया है उसी में खर्च हुआ है? सर्दी से बचने के लिए किसी को एक कंबल भी देते हैं तो दूसरी रात देखने जाते हैं कि वो उसे ओढ़ कर सो रहा है या बेच दिया?हम अपने दिये हुए धन या पदार्थों के प्रति तो इतना सतर्क रहते हैं। लेकिन एक विडंबना यह है किहम कभी यह नहीं सोचते कि प्रकृति ने हमें भी तो अन्य प्राणियों से अलग विशेष रूप से मनुष्य जन्म, वाणी, बुद्धि, विवेक, शरीर उपहार-स्वरूप प्रदान किया है।क्या हम भी इस सब संपदा कोउसी निमित्त में लगा रहे हैं जिसके लिए हमें न्यस्त किया गया है या उसका दुरुपयोग कर रहे हैं?नाक, कान और मुंह आदि इंद्रियां पशुओं को भी प्राप्त हैं। मगर विवेक-हीनता के कारण वह इनका उचित उपयोग नहीं कर पाते। मनुष्य बुद्धि और विवेकवान होकर भी अगर इन अनमोल निधियों का सदुपयोग नहीं कर पाए तो पशु और मनुष्य में कोई अंतर नहीं है। अंधा व्यक्ति खड्डे में गिर जाए वह दया का पात्र बनता है। लेकिन आंखों वाला गिर जाए तो दंड का भागी होता है।जन्म और जाति से कोई महान नहीं होता।जाति,धर्म, ऊँच, नीच का भेद त्याग कर व्यक्ति अपने कर्मों से महान बनता है। रविदास जी ने जीवन भर जूते बनाये परन्तु अपनी भक्ति और ज्ञान के कारण संत शिरोमणि कहलाये। अपने लिए तो सभी जीव जी रहे हैं हम मनुष्यों के ज़िम्मे तो परमार्थ का काम है। इसी विशेष कार्य के लिये परमात्मा ने मनुष्य को संसार में भेजा है। अपना मूल्याँकन किया जाए कि इसी उद्देश्य विशेष की पूर्ति में लगे हैं या अपनी कामना पूर्ति में?महर्षि व्यास ने जीवन की सफलता का रहस्य बताते हुए कहा है कि -उसी का जीवन सफल है जो परोपकार में प्रवृत्त रहता है, परमार्थ अपने आप में जीवन की बहुत बड़ी साधना है।परमार्थ के पथ पर चल कर व्यक्ति में संकीर्ण स्वार्थपरता “मैं” का अस्तित्व नहीं रहता। अपितु एक संयुक्त भावना “हम” का उदय होता है! इसमें हर एक सदस्य के सुख-दुख में दूसरे लोग भागीदार होते हैं। परमार्थ जीवी को जन सहयोग, समाज का प्रतिनिधित्व, आदर, महानता आदि सभी कुछ मिलता है। यह जो कुछ मिलता है उसका मूल्यांकन किसी भी भौतिक संपन्नता से नहीं हो सकता। जिनदर्शन के अनुसार तो दूसरों की भलाई के समान कोई धर्म नहीं है और दूसरों को दुख पहुंचाने के समान कोई पाप नहीं है।औरों के लिए जो जीता है औरों के लिए जो मरता है उसका हर आंसू रामायण, उसका हर कर्म गीता है।संसार में उसी का जीवन सार्थक है जिसने अपने जीवन में ईश्वर प्रदत्त इस शरीर के समस्त अवयवों से सदैव दीन-दुखी, पीड़ित- लाचार, असहाय की सामर्थ्य के अनुसार तन-मन-धन से सेवा की है। ध्यान में जब जाओ तो आत्मा के गुणों का चिंतन श्रेष्ठ है। संसार के सभी प्राणीमात्र की कुशल-क्षेम की प्रार्थना से बड़ी कोई प्रार्थना, कोई पूजा नहीं है। किसी भी दशा में रहें, जिसके उपकार से हमें यह मानव जीवन मिला है उसे कभी भी नहीं भूलना चाहिए।हम अपनी मुक्ति के लिए जितना कर सकते हैं उतना करें। लेकिन अपने अतिरिक्त अन्य जीवों के कष्ट-मुक्ति के लिए भी अवश्य कुछ करते रहें। जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन