सदियों से आज तक सर्मपण में ही शक्ति है -पी.एम.जैन
सदियों से आज तक सर्मपण में ही शक्ति है व्यवहार स्वरूप हम कहते जरूर हैं कि एकता में शक्ति है लेकिन एकता सर्मपण के बिना अधूरी है!
सर्मपण देश के प्रति हो, समााज के प्रति हो,माता-पिता के प्रति हो,परिवार के प्रति या धार्मिक स्तर पर हो लेकिन सर्मपण होना चाहिए तभी एकता में शक्ति की बात सम्भव है|उदाहरण स्वरूप👉अगर हम बात धार्मिक स्तर पर करें तो चाहे सर्वज्ञ हों,शास्त्र हों या फिर कोई सम्यक् दृष्टि संत हों उनके प्रति नि:स्वार्थ समर्पण का होना अत्यन्त आवश्यक है|
मेरे मतानुसार👉सतयुग हो या कलयुग जिनके पास आज भी शुद्ध समर्पण है वह”सम्यक दर्शन,सम्यक ज्ञान और सम्यक चारित्र” से अछूता नहीं रह सकता| मैं अल्पज्ञ यथाशक्ति“विधि के विधान“को सूक्ष्मता से जितना समझता हूँ उतना समझाने का प्रयास करता हूँ! 👉विधि के विधान के नियमानुसार सर्मपण के प्रसूत से ही एकता और “शक्ति” दोनों की त्रिवेणी उन व्यक्तियों चारों ओर भ्रमण करती हैं जो सर्वज्ञ देव,शास्त्र और सच्चे संतों के प्रति श्रद्धा के साथ-साथ निर्विकार सर्मपण रखते हैं!
आज के दौर में निजी स्वार्थ के वशीभूत होकर कुछ ऐसे भी लोग देखने को मिलते हैं जिनको सर्वज्ञ देव-शास्त्र और सच्चे संत के प्रति सर्मपण सुहाता तक नहीं है! जबकि एक ही धर्म और एक ही आम्नाओं के अनुयायी होते हुए भी सर्वज्ञ देव के कार्य हेतु तन-मन-धन से सहयोग की बात तो छोड़िए, इनके मुख से “अनुमोदना” तक नहीं निकलती है तो फिर समाज व परिवार के बीच एकता में शक्ति कहाँ से विचरण करेगी?.परन्तु ध्यान रखना योग्य बात तो यह है कि👉समर्पण में वह शक्ति निहित होती है जो आज नहीं तो कल समर्पणधारियों के चारों ओर भ्रमण करती ही है|