अपनी-अपनी केचुली से बाहर निकलें-डा.निर्मल जैन(से.नि.जज)

अपनी-अपनी केचुली से बाहर निकलें-:डॉ निर्मल जैन (से.नि.जज)
कहीं संत प्रभावी तो कहीं पंथ हावी। कभी किसी गुरु की जय-जय कभी कोई संत का जय-जय-कार। हमारे मार्ग-दर्शकों ने हमें सम्मोहित कर रखा है। सच तो यह है कि व्यक्तित्व आते-जाते रहते हैं। हमारा धर्म हमारी, विचारधारा तो अनंत काल से चली आ रही है। हमारे वीतरागी तो हमेशा जो थे वही रहेंगे, वैसे ही रहेंगे। उनका स्वरूप न बदला है न बदलेगा और कोई कितना भी प्रयास कर ले बदल नहीं सकेगा। अपने-अपने हठ, अपने-अपने पंथ,अपने–अपने झंडे के पीछे हमने अपने-आप को अभेद चट्टान से रेत के कणों मे परिवर्तित कर लिया और कोसते हैं कि क्या थे क्या हो गये।
भले ही अभी हम लाखों तक सीमित रह गए हैं। लेकिन धनबल, बुद्धि, विवेक और गुणों मेंअपेक्षाकृत कहीं बेहतर हैं। संगठित होकर उन सबको अपनी उंगलियों पर नचा सकते हैं, जिन लोगों ने हमारे तीर्थ-क्षेत्रों और हमारी आस्था पर कुठाराघात किया है। उन से अपना सब कुछ वापस ले सकते हैं। यह तब संभव है जब हमें सबको मिलकर एक बार यह तय करना पड़ेगा कि हमारा स्टैंड क्या ,हमारा मोटिव क्या है? खाली बातें बनाना है या पुरुषार्थ से अपनी समाज को और बिखरने से बचाना है। हम प्रक्रियाओं में आये शिथिलाचार,अनाचार के विरुद्ध आवाज तो उठाते हैं लेकिन उन्हीं शिथिलाचरियों के बीच में जाकर उनका जयकारा बोलने वाली भीड़ में शामिल भी हो जाते है। इससे स्थिति और विषमतर होती जा रही है। इसलिए जरूरी है कि हम अपनी-अपनी केचुली से बाहर निकलें, अपने-अपने निहितार्थ से बाहर आयें।
व्यापार मंदा है आवागमन लगभग बंद सा है इसलिए थाली बैठे हम लोग वेबीनार करते हैं, रोज व्हाट्सएप पर अंगूठा चलाते हैं। लेकिन क्या इतने से ही से काम चलेगा? हमें बाहर निकल के जीरो-ग्राउंड पर कुछ करना होगा। जो संतवाद, पंथवाद समाज को टुकड़े-टुकड़े कर रहे हैं, उनसे बिना यह विचारे कि वे किसके पाले में हैं अथवा उनसे हमारे व्यक्तिगत संबंध हैं। सब भूलकर मुखर होकर उनकी गतिविधियों पर विराम लगाना होगा।
अहिंसा के मंदिर में हिंसा का प्रवेश कैसे हो जाता है? हमारे गुरुओं के प्रति अभद्र शब्द बोले जाते हैं। बोलने वाला कौन है इस से कोई मतलब नहीं है। सवाल तो यह है कि यह साहस कैसे होता है? इस साहस को बढ़ाने वाले कौन हैं? इतना तो सच है किसी बाहरी तत्व का कोई हाथ नहीं। सबकुछ जानते हुए भी हम ऐसे कारकों के धनबल और जनबल से प्रभावित हो चुप रहते हैं। अपने मंदिरजी में शूरवीरता दिखाने वाले, किसी कुर्सी पर अंगद के पैर कि तरह जम जाने वालों का साहस मंदिर के बाहर जब हमारे समाज और धर्म गुरुओं पर कोई प्रहार होता है तो अहिंसा के आवरण में लिपट कर महावीर की अहिंसा की परिभाषा ही बदल देता है।
हमारी सामंत शाही-सत्ता-लोलुप-नीतियों ने जिन-विचारधारा के कितने टुकड़े कर दिए। कभी हम करोड़ो थे आज लाख तक आ गए क्यों? हर तीसरे घर पर एक नई संस्था का झण्डा लहरा रहा है । इतने पर भी हम अच्छे नेतृत्व की तलाश में हैं। नए नेतृत्व की तलाश की ज़रूरत ही क्यों पड़ी? क्या जो वर्तमान नेतृत्व है वह हमारे समाज की कसौटी पर खरा उतरने में असफल रहा। लेकिन यह कहते हुए डरते हैं कि क्योंकि उनसे व्यक्तिगत संबंध बिगड़ने का डर हैं।
रोज चीखते-चिल्लाते हैं कि समाज में गरीबी हैं। हमारे सारे धनाढ्य लोग जो सहयोग, भवन निर्माणों को देते हैं वे महावीर की जीव-दया-करुणा को लेकर जीवन-निर्माण के कुछ नहीं कर सकते? कोई इस तरह का फंड नहीं बना सकते जो वक्त जरूरत समाज के ऐसे लोगों के काम में आ जाए। कभी-कभी तो आर्थिक अभाव में विचारधारा परिवर्तन करने को लोग मजबूर हो जाते हैं। फिर शीर्ष से प्रलाप सुनाई देता है हमारी संख्या घट रही है।
एक और सबसे बड़ी विडंबना ही है कि अगर इन सब मुद्दों को लेकर कोई अपनी आवाज उठाता है तो उसके समर्थन में लोग इस भय से नहीं आते कि भाई हम क्यों झंझट मोल लें। जो दिखाई दे रहा है उसे उजागर करेंगे तो रंजिश बढ़ेगी। हमारी सारी सोशल मीडिया आहार-विहार और चित्रों के प्रसार-प्रचार तक सीमित होकर रह गई है। परिणामों से दुखी हैं लेकिन इस आसन्न संकट के समाधान के लिए सब उदासीन हैं। तेरे-मेरे की भूल-भुलैया में फंसे हमें याद ही नहीं रहा कि यह समाज न मेरा है, न तेरा है यह तो सब का है। इसे न संख्याओं में सीमित किया जा सकता है और न यह किसी व्यक्तित्व को आधार बना कर टुकड़े-टुकड़े हो सकता है।
अगर अब भी जागरूक नहीं हुए तो हमारी क्षणिक आकांक्षाओं से हुए नुकसान को सदियाँ पश्चताप करेंगी। इसलिए ज़रूरी हो गया है कि खाली जुबानी जमा-खर्च ना करके हम एक सशक्त और निर्भीक नेतृत्व के साथ न केवल जो खोया है उसे पाने का उपक्रम करें अपितु जो बचा है उसकी सुरक्षा लिए सन्नद्ध रहें। शिथिलाचारी, विघटनकारी तत्वों का प्रखर विरोध करें और उन्हें इस स्थिति तक पहुंचा दें कि हम जितने एकजुट हैं उनमें और सेंध ना लगा सकें।जज (से.नि.) 👉डॉ. निर्मल जैन