प्राचीन मगध की राजधानी राजगृह के वैभारगिरि पर्वत पर उत्खनन में एक प्राचीन जैन मन्दिर प्राप्त हुआ है। गर्भगृह के अतिरिक्त मन्दिर की परिक्रमा में चारों ओर कुल २२ देव कुलिकाएँ और मन्दिर के बाहर एक तलगृह है। पूर्वाभिमुख गर्भगृह में मूलनायक के रूप में मुनिसुव्रत जिन प्रतिमा अवस्थित है। २७गुणित४७ इंच के शिलाखण्ड में शिल्पित यह सपरिकर प्रतिमा अत्यन्त महत्व की है।
मूर्ति ध्यानमुद्रा में कलात्मक दोहरे कमल पर आसीन उत्कीर्णित है । १७ गुणित २१ इंच की इस मूर्ति के दोनों बाजुओं तरफ दो चॅवरधारी मुकुट, कुण्डल, हार, भुजबंद, कड़ा और कटिबन्ध आदि अलंकरणों से अलंकृत अंकित है। प्रतिमा के केश धुंघराले, सोष्णीष अंकित है। कर्ण सामान्य से कुछ लम्बे किन्तु स्कन्धों से नहीं छू रहे हैं। ग्रीवा-त्रिवली स्पष्ट अंकित है, ऊपर छत्रत्रय का अंकन, छत्रत्रय के एक ओर झाल लिए दो हाथ और दूसरी योर ढोलक पीटते हुए दुन्दुभिवादकों के दो हाथ उत्कीर्णित हैं। दुन्दुभि वाद्यों के नीचे गगन में उड़ते हुए माल्यार्पक व पुष्पवर्षक देव दर्शाए गए हैं। प्रतिमा का प्रभावलय अत्यन्त कलात्मक है, उसके ऊपर दोनों ओर दो-दो अशोकपत्रगुच्छ उकरित हैं।
तीर्थंकर के शासन में कमल के नीचे बीच में धर्मचक्र और उसके दोनों ओर विपरीताभिमुख दो सिंह शिल्पित हैं। धर्मचक्र में १२ आरे दर्शाये गये हैं।
लाञ्छन – सिंहासन के सिंह-द्वय अंकन को देखकर इस प्रतिमा को तीर्थंकर महावीर की प्रतिमा अनुमानित किया गया है, किन्तु इस प्रतिमा के आसनपट्ट (पैडिस्टल) में धर्मचक्र के पास ही एक बहुत छोटा (लगभग 1 बाई डेढ़ इंच का) कूर्म उत्कीर्णित है। जिससे निश्चित होता है कि यह मुनिसुव्रत जिन की प्रतिमा है। राजगृह की प्राचीन जैन मूर्तिकला में यदि महावीर के सिंहासन के सिंह भी दर्शाए गए हैं तो लाञ्छन का सिंह अलग से बीच में दर्शाया गया है। अन्य तीर्थंकरों का लाञ्छन भी यदि एक दर्शाया गया है तो वह बीच में, और दो है तो दोनों ओर अनुकूलाभिमुख अर्थात् एक-दूसरे के सामने मुख करके अंकित किए गए है, जबकि सिंहासन के सिंहों का सभी जगह प्रतिकूलाभिमुख अंकन हुआ है।
नारी प्रतिमा- सिंहासन के नीचे एक नारी प्रतिमांकन है। दाहिने करवट लेटी हुई यह द्विभुजा नारी अत्यन्त कुशलता से शिल्पित है। इस नारी को उसके दाहिने हाथ से सिर को सहारा दिए हुए, सिर एवं पैरों के नीचे एक-एक मसंद (गोल तकिया) लगाए हुए दिखाया गया है। इसकी केश-सजा में शिल्पी ने अपनी अच्छी कुशलता प्रदर्शित की है। कर्णावतंस, मुक्ताहार, कटिमेखला, बाजूबंद, कंगन और अधोवस्त्रादि अंकन के अतिरिक्त इसकी शय्या तथा मसंद भी अलंकृत दर्शायी गयी है। नारी के पैरों की ओर एक परिचारिका उकरित है।
इस नारी मूर्ति को कुछ अन्वेषकों ने तीर्थंकर महावीर की माता त्रिशला माना है। किन्तु तीर्थंकर प्रतिमा के पादपीठ पर कूर्म लाञ्छन पाये जाने से जिन प्रतिमा तीर्थंकर मुनिसुव्रत की स्पष्ट हो जाने के कारण अब यही कहा जा सकता है कि या तो यह नारी मूर्ति मुनिसुव्रत जिन की यक्षी बहुरूपिणी का अंकन है या उनकी माता सोमा का।
बारहभुजी गुफा, बजरामठ ( ग्यारसपुर) और आशुतोष संग्रहालय कलकत्ता की मूर्तियों से तुलना कर इसे बहुरूपिणी यक्षी अनुमानित किया गया है। डॉ० मारुतिनन्दनप्रसाद तिवारी का भी अभिमत है कि ‘स्त्री के समीप कोई बालक-आकृति नहीं उत्कीर्ण है, अतः इसे जिन की माता नहीं माना जा सकता है। फिर माता का जिन मूर्तियों के पादपीठों पर जिनों के चरणों के नीचे अंकन भारतीय परम्परा के विरुद्ध भी है। किन्तु इस सन्दर्भ में देवगढ़ के मन्दिर नं. ४ ( ईसा १०वीं शती ) का वह शिल्पांकन दृष्टव्य है जिसमें तीर्थंकर की माता को वैभारगिरि की प्रतिमा के लगभग समान मुद्रा एवं अलंकरण युक्त दर्शाया गया है और जिसके ऊपर तथा सिरहाने तीर्थंकर अंकित हैं तथा समीप कोई बालक-आकृति भी उत्कीर्ण नहीं है।
वैभारगिरि की स्त्री-प्रतिमा के जिन-माता होने के पक्ष में राजगीर का ही एक अत्यन्त महत्वपूर्ण शिल्पांकन जाता है, जिसमें २३ तीर्थंकरों के नीचे दो परिचारिकाओं से सुश्रूषित लेटी हुई जिनमाता अंकित है तथा उसी के समानान्तर ललितासन में आम्रगुच्छ और दो बालकों के साथ अम्बिका उत्कीर्ण है। तीर्थंकर मुनिसुव्रत का जन्म राजगृह में होने का सन्दर्भ भी नारी प्रतिमा का अंकन माता सोमा का होने की ओर इंगित करता है। दूसरी ओर अन्य सन्दर्भों में किसी यक्षी का लेटा हुआ नहीं पाया जाना, प्रकृत शिल्पांकन में बहुरूपिणी की चार भुजाओं, आयुधों (फल, खेटक और खड्ग आदि) तथा सर्पासन में से किसी भी लक्षण का नहीं पाया जाना बहुरूपिणी यक्षी की सम्भावना को नकारते हैं।
इस प्रकार यह सम्पूर्ण शिल्पांकन कई दृष्टियों से महत्वपूर्ण है। इस शिल्पकला का समय 9वीं-१०वीं शती ई० अनुमानित किया जाता है।