कोरोनावायरस तू वाकई में बड़ा दुष्ट है। तूने सिर्फ कितने घर ही नहीं उजाड़े, मांगे ही सूनी नहीं की।तूने इस बार न जाने कितने मंच उजाड़ दिए,तेरे कारण कितने कलफ लगे कुर्तों के गले माला से सूने रह गए। कितनों के हाथ माइक पकड़ने के लिए तरस गए। हे निर्दयी कोरोना! तेरे कारण ही अबकी बार हम महावीर-जन्म-कल्याणक खुलकर नहीं मना सकें। हमें याद है कि हर बार इस दिन माइक पर खड़े होकर हे महा-मानव-महावीर! तुम्हें याद दिलाते थे कि तुम कितने गुणी हो, तुमने कितना तप किया, तुमने कितना त्याग किया। अबकी बार इस दुष्ट करोना के कारण हम मजबूर हो गये। लेकिन तुम्हें भूल गए ऐसा भी नहीं।अपने मतलब की बातें अब भी याद हैं बस कुछ शाब्दिक हेर-फेर कर हमने तुम्हारे उपदेश अभी भी आत्मसात कर रखे हैं। तुम्हारी निर्भयता आज भी हमारे अंदर है। महावीर! तुम सत्य के उद्घोषक थे। हम भी बड़ी निर्भयता से अपने बारे में यह सच जानकर कि हमने बिना साधन-शुद्धि का ध्यान रखें करोड़ों रुपए कमाए हैं शर्माते नहीं हैं। महावीर! तुम सादा जीवन उच्च विचार के हामी रहे। बस हमने थोड़ा सा शब्दों को उलट-पुलट कर लिया है। हम पाखंडी-जीवन और झूठ-विचार को मानने लगे हैं।
तुमने अहिंसा, अपरिग्रह, अनेकांत पर चलकर विकास का मार्ग दिखाया था। हम अपनी विलासिता, अपनी सुख-सुविधाएं के अनुरूप तुम्हारे विचारों को तोड़ मरोड़ कर विनाश के मार्ग पर तीव्र गति से फिसलते जा रहे हैं। क्योंकि हमारे लिए यह सस्ता सरल और शॉर्टकट है। महावीर! तुमने अपने तप और त्याग के मंथन से जो अमृत हमें दिया उसका स्वाद हमें रास नहीं आया। हमने अपने आप को संसारी लोभों का विष पीने का अभ्यस्त बना लिया। माफ करना महावीर! भला जब हमने अपने आपको इतना सब बदल लिया तो ऐसे में तुम्हारे लोकोपकारी सूत्र कैसे सुरक्षित रख पाते।
कर्मकांड, आडंबर और विकास की ग्लोबल आंधी ने परंपरा और मान्यता के बड़े से बड़े पेड़ उखाड़ दिए। अब भौतिक और आत्मिक दोनों विकास का पर्याय रह गया -सिर्फ धन-प्रदर्शन और सुविधाएं तथा जीडीपी और सेंसेक्स। इसी दोनों के भरोसे दिखने वाली विकास और समृद्धि का ही परिणाम है कि हम उस दौर में पहुंच गए हैं जहां जोशो-खरोश से भर देने के साथ अवसाद मिटाने वाली दवाओं का बाजार सबसे बड़ा बन गया है।
आस्थागत आधुनिकता को अंतिम सत्य मानकर हम पाखंडी होते गए और वैचारिक आधुनिकता को तिलांजलि दे दी गई। हमारी अंतरात्मा पैसे की बंधक हो गई। एक ही बात याद रह गई। चाहे जैसा भी हो जिस रास्ते से भी हो सब कुछ धन से खरीद लो। धर्म खरीदो, धार्मिक क्रियाएं खरीदो, नेतिकता का सौदा भी करलो। लोगों को खरीदो उनकी आत्मा खरीदो। बहती गंगा में केवल हाथ ही नहीं धोओ पूरी डुबकी लगा लो। अहिंसा, सत्य और परस्पर-सद्भाव को वनवास हो गया है। मानवता पैसे में विराजमान हो गयी है।
तुमने अनेकांत विचार-पद्धति को आधार बनाया। हमें सुझाया कि-पर-दोष नहीं स्व-दोष खोजो। लेकिन हमने अपने दोष तो नहीं तलाशे हाँ अपने हितों तक ही सीमित हो गए। अनीति हो रही है, विकृतियाँ पनप रही हैं। पाखंड-आडंबर चरम पर है। जानते हैं उद्गम कहाँ है। लेकिन हम सबको गिन लेते हैं अपने को छोड़ देते हैं।
महावीर तुम्हारे अनुसार भारत में विकास का अर्थ है -शरीर, मन, बुद्धि, आत्मा का संतुलित सुख के साथ आंतरिक एवं बाहरी समृद्धि का संतुलन। तदनुसार शिक्षा-संस्कार सहित समाज में समृद्धि और संस्कृति का संतुलन बना रहे। जमीन, जल, जंगल, जानवर, जन सभी का परस्पर पोषण होता रहे। व्यक्ति का परिवार पड़ोस, समाज, दुनिया और प्रकृति के साथ मधुर तालमेल बना रहे। महावीर के द्वारा बताई गई विकास की ऐसी ही तकनीक हमारे लिए हितकर है, जिसमें अंतिम व्यक्ति का हित सर्वोपरि रहे। बदले हम हैं, महावीर वही हैं।