भविष्य की सुविधाओं को खरीदने के लिए हम अपना वर्तमान बेचने लगे। सूर्योदय से देर रात तक धन और सुविधाएं की तलाश में खर्च करने से घर केवल रैन-बसेरा की तरह हो गया। परिणामतय: परिवार संघर्ष, विवाद, अशान्ति, के चलते टूटने की कगार पर आ पहुंचे। आत्मीय-रिश्ते लाक्षागृह की आग में भस्म होने लगे। सामाजिक शिष्टाचार और नाते-रिश्ते केवल स्वार्थ और जरूरत पर आधारित रह गए ।
अपने आप में इतने व्यस्त हो कर सब से दूरियां बढ़ा लीं। साथ रहते हुए भी अकेलेपन के अहसास के कारण तन-मन दोनों अस्वस्थ होगाए। धार्मिक प्रक्रियाओं का ऑन-लाइन व्यापारी-करण कर दिया गया। शोर में शांति की तलाश, भीड़ में एकांत-भाव खोजते रहे। राजनीति में धर्म का लोप हो गया। हाँ! धर्म का पूरी तरह राजनीति-करण हो गया। राजनीति में जैसे केवल राज करना ही लक्ष्य बन गया, नीति कहीं देखने को नहीं मिलती। वैसे ही धर्म की प्रक्रियाओं में मात्र प्रदर्शन ही उद्देश्य बन गया। विस्तार करने की ऐसी होड़ लगी कि मानवता और नैतिकता शर्मसार हो गयी।
हमने सोच बना ली कि अच्छी जीवन-शैली के लिए बहुत से पैसे होना ज़रूरी है। लेकिन कितना और किस सीमा तक? इसका उत्तर हम में से किसी के पास नही है। हमारी इन सारी गतिविधियों के अतिरेक को लेकर महावीर तो कह कर गए हैं कि –हम यह न भूलें कि यह ब्रह्मांड सभी जीवो के लिए है, हम अकेले के लिए ही नहीं। क्रय-शक्ति हमारी भले ही अपार हो लेकिन संसाधन पर सभी का अधिकार है। उनका अवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही उपयोग हो, विलासिता के लिए नहीं। जीवन की पहली पाठशाला परिवार है, जीवन का प्रथम धर्म अपने कर्तव्यों का पालन है।
लेकिन हम नहीं समझे। हमने हर क्षेत्र में अति कर दी तो प्रतिक्रिया भी गंभीर रूप में हुई। एक छोटे से कोराना विषाणु के द्वारा प्रकृति ने सब पर विराम लगा कर इति कर दी। हमें कुछ समझने, सीखने को मजबूर कर दिया। बाहर से सारी दूरियां समेट कर हमें अपनों के बीच ला बैठाया। सब को एक दूसरे का सहयोगी बना दिया। सोच ही बदलने लगी, अब जो हमें प्राप्त है वही पर्याप्त लग रहा है। पर्यावरण और वातावरण भी सुधारने लगा।
लेकिन यह सब जिस जन-धन की हानि की कीमत पर हुआ है उस की तुलना में यह उपलब्धियां नगण्य हैं। बड़ी संख्या में लोग असमय ही काल-कवलित हो गए। एक बहुत बड़े वर्ग के सामने रोटी-रोजी की समस्या खड़ी हो गयी है। उद्योग-धंधे, कृषि क्षेत्र श्रम की समस्याओं से जूझ रहा है। इस विभीषिका की कड़ियों को तोड़ने के लिए केवल एक ही प्रभावी रास्ता “लॉकडाउन”। अगर स्वयं को बचाना है तो “लॉकडाउन” को सहना ही होगा। जन बचे रहेंगे तो जो धन चला जा रहा है अपने पुरुषार्थ से फिर वापिस ले आएंगे।
“लॉकडाउन” के दुख उनके लिए तो असहनीय हैं जिनके सामने जीवन-यापन की समस्या है। उसका निदान भी जरूरी है। लेकिन खाली दिमाग और भरे पेटवाले इस
भविष्य की सुविधाओं को खरीदने के लिए हम अपना वर्तमान बेचने लगे। सूर्योदय से देर रात तक धन और सुविधाएं की तलाश में खर्च करने से घर केवल रैन-बसेरा की तरह हो गया। परिणामतय: परिवार संघर्ष, विवाद, अशान्ति, के चलते टूटने की कगार पर आ पहुंचे। आत्मीय-रिश्ते लाक्षागृह की आग में भस्म होने लगे। सामाजिक शिष्टाचार और नाते-रिश्ते केवल स्वार्थ और जरूरत पर आधारित रह गए ।
अपने आप में इतने व्यस्त हो कर सब से दूरियां बढ़ा लीं। साथ रहते हुए भी अकेलेपन के अहसास के कारण तन-मन दोनों अस्वस्थ होगाए। धार्मिक प्रक्रियाओं का ऑन-लाइन व्यापारी-करण कर दिया गया। शोर में शांति की तलाश, भीड़ में एकांत-भाव खोजते रहे। राजनीति में धर्म का लोप हो गया। हाँ! धर्म का पूरी तरह राजनीति-करण हो गया। राजनीति में जैसे केवल राज करना ही लक्ष्य बन गया, नीति कहीं देखने को नहीं मिलती। वैसे ही धर्म की प्रक्रियाओं में मात्र प्रदर्शन ही उद्देश्य बन गया। विस्तार करने की ऐसी होड़ लगी कि मानवता और नैतिकता शर्मसार हो गयी।
हमने सोच बना ली कि अच्छी जीवन-शैली के लिए बहुत से पैसे होना ज़रूरी है। लेकिन कितना और किस सीमा तक? इसका उत्तर हम में से किसी के पास नही है। हमारी इन सारी गतिविधियों के अतिरेक को लेकर महावीर तो कह कर गए हैं कि –हम यह न भूलें कि यह ब्रह्मांड सभी जीवो के लिए है, हम अकेले के लिए ही नहीं। क्रय-शक्ति हमारी भले ही अपार हो लेकिन संसाधन पर सभी का अधिकार है। उनका अवश्यकताओं की पूर्ति के लिए ही उपयोग हो, विलासिता के लिए नहीं। जीवन की पहली पाठशाला परिवार है, जीवन का प्रथम धर्म अपने कर्तव्यों का पालन है।
लेकिन हम नहीं समझे। हमने हर क्षेत्र में अति कर दी तो प्रतिक्रिया भी गंभीर रूप में हुई। एक छोटे से कोराना विषाणु के द्वारा प्रकृति ने सब पर विराम लगा कर इति कर दी। हमें कुछ समझने, सीखने को मजबूर कर दिया। बाहर से सारी दूरियां समेट कर हमें अपनों के बीच ला बैठाया। सब को एक दूसरे का सहयोगी बना दिया। सोच ही बदलने लगी, अब जो हमें प्राप्त है वही पर्याप्त लग रहा है। पर्यावरण और वातावरण भी सुधारने लगा।
लेकिन यह सब जिस जन-धन की हानि की कीमत पर हुआ है उस की तुलना में यह उपलब्धियां नगण्य हैं। बड़ी संख्या में लोग असमय ही काल-कवलित हो गए। एक बहुत बड़े वर्ग के सामने रोटी-रोजी की समस्या खड़ी हो गयी है। उद्योग-धंधे, कृषि क्षेत्र श्रम की समस्याओं से जूझ रहा है। इस विभीषिका की कड़ियों को तोड़ने के लिए केवल एक ही प्रभावी रास्ता “लॉकडाउन”। अगर स्वयं को बचाना है तो “लॉकडाउन” को सहना ही होगा। जन बचे रहेंगे तो जो धन चला जा रहा है अपने पुरुषार्थ से फिर वापिस ले आएंगे।
“लॉकडाउन” के दुख उनके लिए तो असहनीय हैं जिनके सामने जीवन-यापन की समस्या है। उसका निदान भी जरूरी है। लेकिन खाली दिमाग और भरे पेटवाले इस लॉकडाउन से क्यों बिलबिला रहे हैं? घर का मेन गेट ही तो लॉक है बाहर जाने के लिए। सब कुछ तो लॉक डाउन नहीं। उम्मीद की किरण, मानवता, सूरज की किरणें, चंद्रमा की चांदनी, सुबह की ठंडी-ठंडी बयार कहां लॉक-डाउन है? प्रार्थना, अच्छे और सात्विक विचार कहां लॉक डाउन हैं? देवालय बंद हैं तो घर में ही देवालय जैसा वातावरण बनाए रखने के लिए कहाँ लॉक-डाउन है? समय नहीं कट रहा तो अपने संचित संसाधनों से ज़रूरतमंदों की सहायता करने पर किसने लॉकडाउन लगाया है?
कोरोना घातक है, मारक है। लेकिन हम जिन यम-नियम-संयम को विस्मृत चुके हैं यह उन्हे फिर से जीवन में स्थापित करजाएगा। इतना सजग, सतर्क और सशक्त बना जाएगा कि भविष्य में ऐसा कोई वायरस हम प्रभावित नहीं कर सकेगा। हमें सिखा जाएगा कि -हे मानव! कमाने की भाग दौड़ में ही भटकता रहा, जरा कुछ पल सांस ले-ले। कुछ अपनों के तो कुछ अपने लिए भी जी ले। तू अकेला ही नहीं, सब कुछ तेरे लिए नहीं। सबको अपने-अपने हिस्से की जिंदगी जीने दे। एक बार अपने मन और कामनाओं पर लॉक-डाउन लगा के देख फिर पूरी धरा, पूरा गगन सब कुछ खुला खुला।
कोरोना घातक है, मारक है। लेकिन हम जिन यम-नियम-संयम को विस्मृत चुके हैं यह उन्हे फिर से जीवन में स्थापित करजाएगा। इतना सजग, सतर्क और सशक्त बना जाएगा कि भविष्य में ऐसा कोई वायरस हम प्रभावित नहीं कर सकेगा। हमें सिखा जाएगा कि -हे मानव! कमाने की भाग दौड़ में ही भटकता रहा, जरा कुछ पल सांस ले-ले। कुछ अपनों के तो कुछ अपने लिए भी जी ले। तू अकेला ही नहीं, सब कुछ तेरे लिए नहीं। सबको अपने-अपने हिस्से की जिंदगी जीने दे। एक बार अपने मन और कामनाओं पर लॉक-डाउन लगा के देख फिर पूरी धरा, पूरा गगन सब कुछ खुला खुला।