शिथिलाचार चरम पर है, कर्मकांड, आडंबर ने आगम को अपने आवरणसे ढक दिया है। धर्म केवल प्रक्रियाओं तक सिमट गया। ह्रदय में भक्ति, श्रद्धा, आस्था सब नेपथ्य में चली गयीं। प्रक्रियाओं की जटिलतानिभाते-निभाते भावों की सरलता लुप्त हो गयी। उनके स्थान पर मंच पर अगली पंक्ति मेंबैठ गया है- धन। सब कुछ धन की तराजू परतौला जा रहा है। एक धनवंता सौ गुण्वंतों पर भारी पड़ रहा है। तीर्थ-क्षेत्रों के संरक्षण, सुरक्षा को लेकर गली-गली मौहल्ले-मौहल्ले अखिल भारतीय संस्थाएं बनी होने पर भी तीर्थ-क्षेत्र उपेक्षित ही दिख रहे हैं और अराजक तत्वों द्वारा अतिक्रमण किया जाना जारी है। स्थानीय समाज राजनीति का अखाड़ा बन चुकी हैं! उनका हर “पद” अंगद का पद का रूप ले चुका है! वित्तीय लेखा-जोखा की पारदर्शिता क्षितीज के पार चली गयी है।धार्मिक भव्य आयोजनों ने लोगों केअंदर यह छाप छोड़ दी है कि समाज में प्रतिष्ठित होना है या अपने आपको धर्मात्मा स्थापित करना है तो उसके लिए धन की बहुलता जरूरीहै।धनार्जन में महावीर की साधन शुद्धि महावीर युग की सूक्ति मात्र रह गयी है। यही कारणहै कि हर कोई येन-केन-प्रकारेण धन कमाने में जुटा है। इसका सीधा असर पारिवारिक संबंधों,विशेषकर युवा-युवतियों केविवाह पर पड़ रहा है। हर परिवार चाहता है कि अपने पास तो जो कुछ है सो है ही, कन्या पक्ष से दहेज के रूप में अकूत धन-दौलत ज़रूर मिले। जिससे समाज में पहचान बढ़े। यही कारण है कि जैनेतर विवाह संबंध को बढ़ावा मिलरहा है। घरेलू उत्पीड़न में बढ़ोतरी हो रही है। अच्छे संपन्न धनवान धनिक की तलाश में विवाह की आयु भी बढ़ती जा रही है। समाधान सब जानते हैं।
लेकिन,👉वही शिकवा अँधेरों से वही सपने उजालों के, मशाल एइंकलाब लेकर न हम निकले न तुम निकले।
यह सब ऐसे रोने-धोने हैं जो आजकल सोशल मीडिया पर बड़े-बड़े समाज सुधारक, प्रबुद्ध-जीवी द्वारा रोज दोहराये जाते हैं। समाज केअग्रणी इन सब बातों से विमुख भी नहीं हैं। अथक प्रयास चल रहे हैं। रोज कई-कई वेबीनार हो रही हैं,अपनी SKIN बचाते हुए पत्रकारों, संपाद कों की लेखनी गतिमान है।लेकिन इन सब से सिर्फ पट्टियाँ धोई जा रही हैं, जख्म को साफ करते हुए जिनके हाथों में दी पतवार उनको यह चुनौती कि करो या हटो,कब तक रहेंगे सफर में हमें मंजिल को भी पाना है। देने का कहीं साहस कहीं नहीं दिखाई देता। उस पर एक विडंबना यह कि इतना भर करने वालेभी इन विसंगतियों के उद्गम को ही अंततःतिलक और माला अर्पित हैं। अँधेरों का फैसला भी रातों के सुपुर्द कर समाधान समिति में भी वही सिरमौर बनते हैं! अब तक के प्रयासों के बावजूद यथावत और कहीं-कहीं बदतर स्थिति दिखने से तो यही लग रहा है👉नहीं है हौसला जिनमें कहीं कुछ कर दिखाने का, उनका अब भी दावा है इन दिनों समंदर सुखाने का। तो क्या दशकों से सिर्फ और सिर्फ हम सब अपना चेहरा चमकाने के लिए ही हवा (NET) में कागजी योजनाएं बनाते रहे हैं। सुधारक और ज्ञान की शीर्ष पर बैठने वाले यह क्यों भूल जाते हैं कि इटालियन मार्बल की सीढ़ी बनाने मात्र से ही तो शिखर पर नहीं पहुंचा जा सकता। उसके लिए पुरुषार्थ कर उन पर चढ़कर जाना भी होता है। सुख-सुविधाओं के इस काल में यह शारीरिक पुरुषार्थ ही दुरूह है। क्या ऐसा नहीं लगता कि कोरोना काल के इस लॉकडाउन समय में जब आवागमन और व्यापार ठप से है, समय बिताने के लिए यह सारे हवाई उपक्रम कर लिए जाते हैं।अंत में फिर कहीं संबंधों में बिगड़ाव न हो, तो कहीं निंदा-भय तो किसी कि पदवी उपाधियाँ न छिन जाएँ और सर्वोपरि यह आशंका कि कार्य-व्यवहार ही बंद न हो जाए औपचारिकता पूरी करके फिर भीड़ की पंगत में नत-मस्तक हो जाते हैं। रात को पी, सुबह तौबा करली!रिंद के रिंद रहे हाथ से जन्नत भी ना गई। जो दिखाई दे रहा है, सब महसूस करते हैं यह उसका अंश मात्र भर है । यक़ीनन रहबर-ए-मंज़िल कहीं पर रास्ता भूले, वगर्ना क़ाफ़िले के क़ाफ़िले गुम हो नहीं सकते। सादर जय जिनेन्द 🙏🙏🙏