राग की राह से वीतरागता- डॉ.निर्मल जैन (जज)

21-08-2021
शाश्वत-तीर्थ क्षेत्र श्री सम्मेदशिखरजी पर चिकित्सा सुविधाएं उपलब्ध ना होने पर बीते काल में एक वंदनीय मुनिराज, 20 श्रावकों तथा 14 अगस्त को एक और श्रद्धालु वंदना करते हुए असमय ही काल-कवलित हो गये। हर मंच से, सोशल मीडिया में यह बातें दोहराई जाती है कि बड़े-बड़े भव्य आयोजन के साथ ही समाज हितार्थ कुछ रचनात्मक कार्य जैसे चिकित्सालय, शिक्षार्थियों के लिए छात्रावास, धर्मशाला, विद्यालय के निर्माण पर भी ध्यान देना चाहिए। जिससे हमारी नई पीढ़ी शिक्षा प्राप्ति हेतु विपरीत विचारधारा संस्थानों के द्वार न खटखटाये। रोज कॉन्फ्रेंस, वेबीनार किए जाने पर भी ग्राउंड जीरो पर कहीं कोई प्रयास होता दिखाई नहीं दे रहा।
कुछ लोग आपत्ति भी करते हैं कि शादियों और घरेलू कार्यक्रमों में अकूत धन खर्च होने पर कोई ऐतराज नहीं। तब धार्मिक आयोजन पर खर्च क्यों खटकता है? शादियाँ और घरेलू कार्यक्रम गृहस्थ के कर्तव्य, दायित्व और संस्कारों को निबाहने के लिए अनिवार्यता है। धार्मिक आयोजन तो परम-सुख मोक्ष पाने के निमित्त किए जाते हैं। मोक्ष पाने वाले सब ही धन-माया-राजपाट छोड़ कर वीतरागता के मार्ग पर चले हैं। हम क्या उनके विपरीत धन और राग के रास्ते चल कर वीतरागी बनने के प्रयास में हैं ?
कहते नहीं थकते कि हम सर्वश्रेष्ठ हैं, देश की जीडीपी में हमारा सबसे बड़ा योगदान है। देश को इतना योगदान दे रहे हैं फिर अपनी समाज के लिए कल्याण के लिए क्यों उदासीन हैं? तीर्थंकर! जो घरवार छोड़ गए उन के बड़े-बड़े घर बना रहे हैं। तो महावीर की जीव-दया-करुणा का तकाजा है कि इंसानों के लिए भी कुछ तो बनना चाहिए, बनाना चाहिए। हमारी समर्थ और समृद्ध समाज के लिए कुछ भी असंभव नहीं है।
शरीर को चलाने के लिए हमें बहुत सारा भोजन, जल और अन्य पदार्थ चाहिए। शरीर के विकार दूर करने के लिए दवा की छोटी सी गोली ही काफी होती है। क्यों ना हम भी कुछ ऐसा ही करें कि अपने भव्य धार्मिक निर्माण स्थलों में जनउपयोगी सुविधाओं, विद्यालय, चिकित्सालय को एक बहुत बड़ा स्थान दें और उसमें एक छोटा सा पूजा-गृह भी स्थापित करें। पूजा-गृह छोटा भले ही होगा लेकिन उसकी मानवता के हितार्थ प्रभावना और प्रखरता सूर्य और चंद्रमा की किरणों से भी ज्यादा तीव्र होगी, प्रभावी होगी। क्योंकि उसने अपने हिस्से के संसाधन मानवोपयोगी कार्यों के लिए त्याग दिये।
बस दृष्टिकोण बदलने की देर है। स्व-प्रशंसा नहीं मात्र उदाहरण है। मेरे मूल-निवास मुरादाबाद (उत्तर प्रदेश) में हमारे परिवार द्वारा एक ऐसा ही संस्थान “तीर्थंकर महावीर यूनिवर्सिटी, मेडिकल कॉलेज” (TMU) सेवारत है। कई एकड़ में जन-मानस के लिए स्वास्थ्य, बहु-कोणीय शिक्षा, खेल सुविधा उपलब्ध कराने के लिए वृहद निर्माण के बीच आकार में छोटा लेकिन भव्यता विखेरता हुआ एक जिनालय है जो दवा की उस छोटी गोली की तरह हमारे मन के विकारों को भी दूर करता है। जब एक परिवार ऐसा कर सकता है तो अपने आपको सर्वश्रेष्ठ और देश की जीडीपी में सर्वोत्तम अंशदान करने वाला यह जैन समाज क्यों नहीं? बुद्धि-कौशल की कमी नहीं, प्रचुर मात्रा में संसाधन भी हैं। इस पर भी अगर कुछ वांछित नहीं हो पा रहा तो यह निश्चित रूप से नेतृत्व की उदासीनता है। जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन