पर्यूषणपर्व (दशलक्षण पर्व) अर्थात आत्म-शुद्धि की उत्कृष्ट प्रेरणा-डॉ.निर्मल जैन (जज)
सभी प्राणी सुखी होना चाहते हैं। क्रोध,विषय-विकार हर काल में दुख के कारण हैं। विकारी-भावों कापरित्याग और उदात्त भावों का गृहण सभी केलिए सामान रूप से हितकारी है। यही इस पर्यूषणपर्व (दशलक्षणपर्व)की सार्वभौमिकता का आधार है। यह जरूरी नहीं कि जैन ही हो। यह भी जरूरी नहीं कि भारत में ही रहता हो। विश्व में कहींका भी निवासी और किसी भी विचारधारा का समर्थक हो। धार्मिक कहलाए या नहीं, आत्मा-परमात्मामें विश्वास करे या न, पूर्वजन्म और पुनर्जन्म को माने या नहीं।सबके लिए पर्युषणपर्व का सही अर्थ -सिर्फ मनावता को समझना है, उसका संरक्षण करना है। अपनी कामनाओं पर नियंत्रण कर पर्यावरण सहित सभी प्राकृतिक संसाधनों का केवलअपनी आवश्यकताओं कि पूर्ति हेतु सीमित उपभोग करना -पर्युषण पर्व मनाना है। किसी भीसमस्या के समाधान में जहां तक संभव हो अहिंसा का सहारा लेना यही -पयुर्षणपर्व से इंगित है। इसीलिए यह पर्व सबका है और सिर्फ दस दिन का ही नहीं सर्वकालिक है।
जब हम सच बोलते हैं, जब समस्त जीवों के प्रति मन-वचन-काया से करुणा भाव रखते है, विपरीत परिस्थिति में भी मर्यादा नहींलांधते, हम सभी पर्युषणपर्व मनाते है। आत्म-निरीक्षण के साथ निरंतर लक्ष्य की ओरअग्रसर होते है, मुस्कराकर परिवार के प्रति ज़िम्मेदारी निभाते है। जरूरतमन्द की मदद के लिए जब हमारे हाथ आगे बढ़ते हैं, अपने समाज, देश के प्रति निष्ठावन बनते हैं तब-तब हम पर्युषणपर्व के भागीदार बनते है।यह पर्व स्वयं का स्वयं से परिचय करने और आत्म-साक्षात्कारका एक विशिष्ट अवसर है। आत्मा दिव्य-स्वरूप है, उस पर सांसारिक मोह-माया का पर्दा छायाहुआ है। यह पर्व इस पर्दे को हटाने का एक अनुष्ठान है। पर्युषणपर्व की साधना का अर्थ है व्यक्तिद्वारा पीछे मुड़कर स्वयं को देखने की ईमानदार कोशिश। अतीत की गलतियों को देखना और भविष्य के लिए उन गलतियों को न दोहराने का संकल्प। यह टूटते जीवन मूल्यों एवं बिखरती आस्थाओं को विराम देते हुए जीवन को नए संकल्पों के साथ जीने के लिए अग्रसर करता है।
जीवन नाम है आस्था का और संकल्प का। यही धर्म बनकर मार्ग प्रशस्त करते हैं। किंतु ना तो सोचने मात्र से आस्था जागृत होती है और ना कहने मात्र से संकल्प। श्रद्धा और समर्पण का विकास आस्था के साथ जुड़कर करना होता है। लेकिन यही सबसे कठिन कार्य है। इसी कठिन कार्य की साधना के लिए जैन विचारधारा में पर्युषणपर्व में साधकगण धर्म के दस अंगों में सेप्रतिदिन एक अंग को धारण करने का अभ्यास करते-करते उसको आत्मसात कर लेते हैं।
पर्युषण के क्रांतिकारी अभियान से सिद्धांत और व्यवहार की सारी विसंगतियां मिटाई जा सकती हैं। प्रतिवर्ष आयोजित होने वाला यह महापर्व सात्विक जीवन के प्रशिक्षण का एक उपक्रम है। यह हमेंअपने खान-पान के प्रति जागरूक करता है कि कहीं हम जीभ के वशीभूत या फैशन से प्रेरित होकर या किसी अन्य कारण से अभक्ष्य वस्तुओं का सेवन तो नहीं कर रहे हैं।यह पर्व आत्मा के स्नान की प्रक्रिया है। न प्रदर्शन, न प्रलोभन का पथ। भौतिकवाद से दूर यह आत्मशुद्धि का प्रयोग है।
इन दिनों ह्रदय को समस्त विषय-कषायों से रिक्त कर अपनी भूलों के लिए हाथ जोड़कर क्षमा मांगते हैं औरक्षमा करते हैं। टूटे रिश्तों को एक बारफिर से मजबूत करते हैं, बस यही तो पर्युषणपर्व है। यह पर्व केवल दस दिन का नहीं यह तो हम हर रोज, हर पल सद्कार्यों के माध्यम से मनाते हैं। पर्युषणपर्व आत्मिक आनंद के आदान-प्रदानका पर्व है। इस दिन हम सभी अपने मन की उलझी हुई ग्रंथियों को सुलझाते हैं। अपनेभीतर के राग-द्वेष की गांठों को खोलते हैं। पर्यूषणपर्व अर्थात आत्म-शुद्धिकी उत्कृष्ट प्रेरणा, प्रमाद की निद्रा-तंद्रा के त्यागने का एक महापर्व।जिसके बाद जागृत अवस्था, एकऐसा सवेरा जो कर्मों की निर्जरा के साथ अज्ञान के अंधकार से ज्ञान के प्रकाश की ओर प्रस्थान कोसकारात्मक गति देता है। जिन विकारों के कारण आत्मा संतप्त, क्षुब्ध और चंचल बनी हुई है उन विकारों को शांत कर आत्मा का पूर्ण रूप से आत्मभाव में निवास करते हुए मोक्षगामी बनने का प्रयास है -पर्युषणपर्व।
जज (से.नि.)
डॉ. निर्मल जैन