*हम ऐसे ही बिखरते रहेंगे।*-डॉ निर्मल जैन (जज)

अगर हम झरोखे में से आकाश को देखें तो हम सारा आकाश नहीं देख सकते। तब क्यों हमने उस सर्वव्याप्त प्रभु को भी खिड़की, रोशनदानों, चोखटों से देखना शुरू कर दिया है। खिड़की और चोखटें भी वो जो कुछ लोगों ने अपने निहितार्थ उन व्यवस्थाओं के अनुरूप बनायीं हैं जिससे उनका “गेटपास” का धंधा चालू रहे। आजकल की इन व्यवस्थाओं ने मुक्ति-द्वार तक के जो रास्ते सुझाए हैं वे सुविधा के हैं, शारीरिक और मानसिक संतुष्टि के हैं। उनमें न कोई साधना का पुट है न किसी त्याग का एहसास। राग की राह चल कर वैराग्य धारण नहीं कर सकते।हम उस सुंदर और कीमती टिकिट लगे लिफाफे की तरह हो चले है जो गलत पता होने के कारण अपने गंतव्य पर नहीं पहुंचता। अपनी मंजिल का रास्ता उनसे पूछते हैं जो उसका अता-पता तक नहीं जानते। इसीलिए तो व्यर्थ के विवादों में उलझ कर अपने लक्ष्य से तो भटकते जा रहे हैं, वर्तमान में हम प्रक्रियाओं, परम्पराओं, रीति-रिवाजों को ही धर्म समझ कर संसार के दुखों से मुक्ति पाना छह रहे हैं। नर्क और स्वर्ग के दुख-सुख के भ्रमजाल में फंसे बार-बार उन्ही बंद गलियों में चक्कर काट रहे हैं। स्वर्ग और नरक कोई भौगोलिक स्थान नहीं है। आत्म-संतुष्टि स्वर्ग-सुख का आभास देती है और आत्म-ग्लानि के साथ जीना नरक का दुख। ये व्यवस्थाएं, प्रक्रियाएँ, ये गोरख-धंधा अपने को धार्मिक प्रतिष्ठित करने के लिए मात्र एक प्रदर्शन है। सुनने वाले बदलते रहते हैं लेकिन क्या रोज मुक्ति मार्ग दिखाने वालों के अंतर को भी वे पवित्र सूत्र स्पर्श कर रहे हैं? आचरण में, जीवन-चर्या में कोई परिवर्तन दिखाई पड़ रहा है? हाँ धर्म के नाम पर एक छलावा जरुर चल रहा है। गीत-संगीत इतने उच्च स्वरों में बह रहा है कि हमें अपना बोला भी सुनाई नहीं दे रहा है। भीड़ जुट रही है, सिक्कों की खनक अच्छी लग रही है। घंटा बज रहा है, माइक, म्यूजिक-सिस्टम पर पूजा, विधान, आरतियाँ चल रही हैं। शोर में मौन की खोज हो रही है। स्तुति की हर पंक्ति में एक याचना जुड़ी हुई है।कामना-वश की गई आराधना की खिड़की खुलते ही भक्ति और आस्था के दरवाजे स्वत: ही बंद हो जाते हैं। स्तुति वह रसायन है जिसे प्रारंभ करते ही अंतरंग में शक्ति का संचार होने लगता है। हम जिसके विषय में चिंतन करते हैं हमारा सोच-विचार व आचरण, शैली भी उसी जैसी बन जाती है।
अगर वास्तव में शाश्वत सुख पाना है तो याचक-वृत्ति छोडकर पदार्थों की चाहत मिटानी होगी। उसको पाने के लिए उस जैसा ही बनना होगा। आश्चर्य है कि हम खुद अनुसरण न करके उन वीतरागी को उन के ही गुणों और जिस रास्ते चल उन्होने परमपद पाया का बखान करते रहते हैं।उनकी चापलूसी करते करते हमने ऐसे शॉर्टकट खोज लिए हैं कि उन्हें बाहर देखने की आदत डाल ली है। जबकि वह तो हमारे भीतर है। वह मैं और तू में नहीं है। गिनतियों और रंगों में नही हैं, न सुर और ताल और विभिन्न भाव-भंगिमाओं से अवतरित होते हैं। वे वीतरागी तो अनुत्तरित और निष्प्रतिक्रियात्मक हैं। हमारी क्रियायें उन्हें लेशमात्र भी प्रभावित नहीं करतीं। वे तो संपूर्ण जीव मात्र से प्रेम में अंतर्निहित है, समर्पण में हैं। हमने उन्हें कल्पित अनुष्ठानों के दायरों में कैद कर लिया है, अपनी-अपनी मुट्ठियों में बंद कर लिया है। हम मुट्ठी जितनी कस के बांधेंगे उतनी ही उन्हें और उनकी विचारधारा को लेकर संकीर्णता बढ़ती ही जाएगी।और हम ऐसे ही बिखरते रहेंगे।