आखिर हम चाहते क्या हैं?-डॉ. निर्मल जैन (जज)

इन दिनों प्रबुद्ध वर्ग सोशल मीडिया पर अनगिनत समस्याओं से जूझ रहा है। हमारी नई पीढ़ी उच्च स्तरीय शिक्षा प्राप्त कर वैज्ञानिक बने, अच्छा अधिवक्ता, न्यायाधीश, चार्टर्ड अकाउंटेंट बने। आर्किटेक्ट, वैज्ञानिक, चिकित्सक बने। उसी समय हमें यह भी चिंता सताये जाती है कि उम्र बढ़ने पर चरित्र डावांडोल होने की संभावना प्रबल हो जाती है इसलिए नई पीढ़ी को जल्दी ही शादी कर लेनी चाहिए। पता नहीं यह सोच किस ग्रह से आयात की है। कहाँ गया हमारा अनेकांतिक दृष्टिकोण और स्याद्वाद की वाणी की मधुरता जो बिना हालातों का आंकलन किए इकतरफा सोच बना चरित्र हनन कर डाला। फिर भी आशा करते है कि नई पीढ़ी धर्म से जुड़ी रहे। 22 साल की उम्र में कौन इन सारी उपलब्धियों को प्राप्त कर सकता है? इस आयु में विवाह बंधन में बंध कर क्या अध्ययन सुचारू रूप से किया जा सकता है? बड़े-बड़े संयमी शारीरिक आकर्षण से मुक्त नहीं हो पा रहे तब नवविवाहित क्षात्रों से कैसे अध्ध्यन में एकाग्र होने की आशा कर सकते हैं?
नई पीढ़ी उच्च शिक्षा भी प्राप्त कर अच्छे स्थान पर आसीन हों और साथ में रोज अभिषेक भी करें, दिन में खायें, कंदमूल ना खाए। धन्य है हमारी सोच! कि यह सब अपेक्षा करते हुए हम यह क्यों भूल जाते हैं कि क्षात्र उस केटेगरी में नहीं हैं जिन्हे सब कुछ बना-बनाया सुलभ होता है। क्षात्रों को तो सभी वर्ग और विचारधारा के सहपाठियों के साथ एडजस्ट करना पड़ता है। इस नए दौर में वे शाकाहारी और Teatotaler ही बने रहें यही हम पर उनका बड़ा उपकार होगा। रोज अभिषेक करने और दिन में खाने का व्रत तो तब ही संभव होता जब हमारे पास अपनी विचारधारा के अनुरूप उच्च शिक्षा देने वाले प्रतिष्ठान, निवास करने को अपने हॉस्टल होते। GDP में सर्वोच्च योगदान देने वाले हम, अपने अगले भव के लिए मोक्ष-महल का निर्माण करने में ही व्यस्त रहे अपनी नई पीढ़ी के कल के बारे में कुछ करने की ज़रूरत ही नहीं समझी।
👉घटती जनसंख्या के लेकर भी समाज-नायक दुखी हैं। साधन संपन्न होने के बावजूद बल संख्या कम होते हुए भी हमें देखभल की कमी के कारण संस्कारों की गुणवत्ता की गिरावट का रोना, रोना पड़ रहा है। संख्या बढ़ने पर संस्कारों की क्या गति होगी? हम तो आज भी और कल भी पैसे और पूजा में व्यस्त हैं। परिवार विस्तार पर अतिरिक्त धन कमाने के पीछे घर, परिवार, संस्कार सबको एकदम ही विस्मृत कर देंगे। जिन परिवारों और जातियों में सख्या बाहुल्य है वहाँ संतान सड़कों पर “छोटू” के नाम से जानी जाती है। परिवार बढ़ाने कि अपेक्षा हमें अपने आचरण से प्रभावित कर अन्य लोगों को अपनी विचारधारा में जोड़ने की ज़रूरत है।👉विजातीय विवाह बंधन के भी दोषी ये पीढ़ी नहीं हम ही हैं। उदाहरण के लिए -यात्रा के लिए हम सुपरफास्ट ट्रेन के इंतजार में खड़े हैं। जिस के आने की संभावना दिखाई नहीं दे रही। तब मायूस और मजबूर होकर जो ट्रेन सामने आती है उसी में बैठ अपनी यात्रा शुरू कर देते हैं। विवाह के संबंध में जो हमारी वांछित सजातीय सुपरफास्ट ट्रेन है वह इतनी महंगी हो गई है कि आसानी से उनमें बर्थ सुलभ नहीं होती। बढ़ती हुई उम्र और शारीरिक जरूरतों के हिसाब से होता यह है कि –जातीय, सजातिय हो या विजातीय हो जिससे भी आशा बंधती है उसके सहयात्री बन जाते हैं। इसके निराकरण के लिए हमें ही अपनी सोच बदलनी होगी। दिल ओ दिमाग के केंद्र से धन को हटा कर योग्यता, गुण और संस्कारों को महत्व देना होगा। धन को साध्य न मानते हुए केवल साधन के रूप में स्थापित करना होगा। हमारा तो धर्म भी धन आधारित हो गया है प्रथम सम्मान वही पाता है जो स्वर्ण के ढेर पर बैठा हुआ है। यह असंगत है कि स्वर्ण उसने महावीर के साधन सिद्धि को ठुकरा कर अनीति से अर्जित किया हो। सबसे पहले धर्म में धन के बढ़ते प्रभुत्व को खत्म करना होगा। जो संभव दिखाई नहीं देता। क्योंकि भूत भगाने के लिए सरसों कामयाब हो सकती है। लेकिन अगर सरसों में ही भूत हो तो———-।👉 अंत में फिर शुरू की ओर ही लौटते है कि -आखिर हम चाहते क्या हैं? राग कि राह चल कर वैराग्य पाना। नई पीढ़ी को धार्मिक प्रक्रियाओं में जकड़ कर उनसे हर विधा में प्रवीण होना। सौंदर्य आकर्षण में फंसा कर ज्ञानार्जन कर योग्यता के शिखर पर आरूढ़ होना। जनबल बढ़ाना अथवा गुणबल को वरीयता देना। मेहनत की कमाई से घर बनाने वाले को प्रतिष्ठा देना या अनीति से महलों के निर्माता को। दांपत्य जीवन को शुरू करने में प्राथमिकता धन को या संस्कार और गुणवत्ता को।सच तो यह है कि हम इतना ही चाहते हैं कि चिंतन-मनन करके हमारे चेहरे चमकते रहें। जिसका परिणाम हो रहा है कि नई पीढ़ी भ्रमित होकर धर्म और समाज से दूर होती जा रही है। थक चुके हैं योग्यता के पाँव अब तो जन-धन-बल जुटाना ही कुशलता की निशानी।–जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन