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इतिहास
Home›इतिहास›नैनागिरी में चार सौ वर्ष प्राचीन एकमात्र अप्रकाशित पाण्डुलिपियां

नैनागिरी में चार सौ वर्ष प्राचीन एकमात्र अप्रकाशित पाण्डुलिपियां

By पी.एम. जैन
April 3, 2022
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चार सौ वर्ष प्राचीन एकमात्र अप्रकाशित पाण्डुलिपि नैनागिरि में
-डाॅ. महेन्द्रकुमार जैन ‘मनुज’
आचार्य श्री देवनन्दि दिगम्बर जैन स्वाध्याय एवं शोध संस्थान, नैनागिरि में एक लगभग चार सौ वर्ष प्राचीन पाण्डुलिपि (हस्तलिखित ग्रन्थ) ‘राम -हनुकथा रास’ संरक्षित है। मजे की बात यह है कि यह 1681 पद्यों में रचकर संवत् 1681 में पूर्ण हुआ। शेष 11 पद्य पुष्पिका वाक्य अर्थात् लेखक, लेखन, संवत् आदि का परिचय है। इस ग्रन्थ में 107 पत्र अर्थात् 214 पृष्ठ हैं। पत्र  11.5 इंची चैड़ा और 7 इंची लंबा है। प्रत्येक पृष्ठ में 14 पंक्तियां, प्रत्येक पंक्ति में 28 से 32 अक्षर हैं। लेखन में काली एवं लाल स्याही का प्रयोग किया गया है।
प्रारंभ में लिखा है- ‘।।60।। ओं नमः सिद्धेभ्यः।। अथ हनिमंतचरित्तुसमायनुलिष्यते।।’  हनुमत् चरित्र लिखने की प्रतिज्ञा की गई है। प्रारंभ में लिखे गये इस ‘।।60।।’ शुभंकर का भी अपना इतिहास है। प्राचीन पाण्डुलिपियां ताडपत्रों पर और कन्नड भाषा में प्राप्त हुईं। बाद में उनका देवनागरी में लिपिकिरण किया गया। प्रारंभ के शुभंकर को नकलकार यथावत् रखते रहे। कन्नड में ‘ओ’ अक्षर की बनावट लगभग देवनागरी के ‘6’ अंक जैसी होती है। कन्नड में अनुस्वार या बिन्दु को अक्षर के बगल में रखा जाता है, इसलिए वहां ‘ओ0’ रखकर ‘ओम्’ लिखा जाता है। उस कन्नड के ओम् को देवनागरी प्रतिलिपिकारों द्वारा शुभंकर चिह्न के रूप प्रत्येक पाण्डुलिपि में ।।60।। के रूप में अपना लिया और देवनारी का ओम् अलग से लिखा जाने लगा। पाण्डुलिपि वाचक अभी तक ।।60।। का कोई ठीक ठीक उत्तर नहीं दे पाते हैं।
इस पाण्डुलिपि में मंगलाचरण स्वरूप एक संस्कृत का श्लोक है। फिर चैपाईयों में मंगलाचरण और रचयिता का लघुता प्रकाशन। उपरांत किसकी कथा लिखी जा रही है और किस आधार पर वह निम्नांकित चैपाई से स्पष्ट होता है-
राम हनू वर सुगन सारु।। पंडित गुनियन करहु विचारु।।
पदम पुराण जानहु परवान।। दंत कथा यह करिय सुजान।।5।।
अर्थात् यह श्रीराम व हनुमान का कथानक है, इसे इन्होंने पदम पुराण से दंत कथा के रूप में लिया है। कथा का प्रारंभ कैसे होता है- समोसरण रचना वर्णन, जैन धर्म संबोधन, वीरनाथ वैराग्य, वीरनाथ समोसरन, राजा श्रेणिक संबोधन, गौतम स्स्वामी के मुख से कथानक, नगर वर्णन, पवनकुमार जन्म, महद्रपुर नगर वर्णन, अंजनिकुमरि वर वर्णन, सखी कुवर अपहास, सीता हरण, सीता को हनुमान के संदेश, राम-रावण युद्ध, सीता की पुनः वापसी रामचंद्र राज्य आदि का इसमें वर्णन है।
आश्चर्य जनक रूप से यह रचना हिन्दी, मरु, गुर्जर और अपभ्रंस इन चार भाषाओं के मिश्रित रूप को लेकर सृजित की गई है। इसमें बीच-बीच में प्रसंग वस संबंधित संस्कृत श्लोक दिए गए हैं, किन्तु ये श्लोक कवि द्वारा रचित नहीं, बल्कि अन्य ग्रंथों से उद्धृत हैं। इस ग्रन्थ में मुख्य रूप से चैपाई छंद का प्रयोग किया गया है, लेकिन प्रसंग बदलते समय अन्य अन्य छंदों का प्रयोग करके पुनः चैपाई छंद में रचना है। अन्य छंद- दोहा, सोरठा, अडिल्ल, सुंदरीबंध दोहरा, कवित्त, छप्पय, सवैया आदि हैं।
ग्रन्थ के 1682 वें पद्य में कवि कहता है-
रिधि वृद्धि मंगलु करै।। मनवंछित फलु भोग।।
श्री राम हनू कथा सुनै।। परमारथ सुभुगता भोग।।
अर्थात् जो यह राम हनूमत कथा पढ़ै सुनै, उसे रिद्धि-सिद्धि होती है, मंगलकारी है, मनोवांछित फल प्राप्त होता है और वह परमार्थ का सुभ भी प्राप्त करता है।
इस ग्रन्थ के रचयिता ने अपना व अपने गुरु का नाम, लेखन का संवत् और स्थान का उल्लेख भी किया है। यथा-
संवतु सोलासै इक्यासी अछि।। सुदि वैसाख उज्यारी पछि।।
गुरवार अष्टमी दिन जानि।। पुखनक्षत्र कथा कथिवानि।।1683।।
राइसैनगढ विसकर्मा रचेउ।। देउ समान नग्र बहुत विधि सुचेउ।।
कोट अटा मंदिर चैवार।। मढदेबुल उतंग अपार।।1685।।
चंद्राप्रभ चैत्यालय सुभ थानु।। मुनिवर धरमु करत वखानु।।
भवियन सुनत रहसै मन सोइ।। जिनवार भाखित कथा मुनि होइ।।1686
देसु मालवौ गहिर गंभीर।। डग डग पोरी पग पग नीर।।
श्री ललितकीर्ति भट्टारक जानि।। महिमा तासु महिमंडल परवानि।।1687
भए परोषि गए सुर्गवास।। ता सुतनें सिख कथेउ यह रास।।
आर्यब्रह्म नाम देउदास।। विरचित कथा मन अधिक हुलास।।1689
कवि ने इस कथा का प्रसंग बीसवें तीर्थंकर मुनिसुव्रतनाथ के शासनकाल का बताया है। उपरोक्त पद्यों के अनुसार यह ग्रन्थ संवत् 1681 में वैशाख शुक्ला अष्टमी, गुरुवार के दिन पुष्य नक्षत्र में मालवा के रायसैनगढ़ नगर के चंद्रप्रभ चैत्यालय में पूर्ण हुआ। इसके लेखक श्री ललितकीर्ति भट्टारक के शिष्य ब्रह्म देवदास हैं। कवि ने अपनी उपजाति का संकेत किया है, एक पद्य में प्रथम गोलापूर्व का उल्लेख किया है, इससे अनुमानित होता है कि वे गोलापूर्व जैन थे। इन्होंने इसमें छत्तीसौ नैत को अपना धर्मबंधु कहा है। वह पद्य इस प्रकार है-
गोलहपूर्व गोलहरार। जैनधर्म ध्यान जानिहि उपगार।।
अवर लमैचू धर्म के कंद। छत्तीसौ न्याति अपनै धर्मबंध।।1690।।
ग्रन्थ के अन्त में लिखा गया है- ।। इति श्री रामहनु कथा संपूर्ण समाप्ता मितीशुभं।।
यह राम हनुमंत कथा रास मेरी जानकारी में अप्रकाशित है। ब्रह्म देवदास की अन्य रचनाओं की जानकारी भी प्राप्त नहीं होती है। संवत् 1450-1525 के कवि ब्रह्म जिनदास द्वारा राम सीता रास लिखे जाने की जानकारी तो प्राप्त होती है, किन्तु प्रस्तुत ग्रन्थ अप्रकाशित है, जिसकी पाण्डुलिपि नैनागिरि के आचार्य देवनंदि शोधसंस्थान में सुरक्षित है। इस संस्थान का स्थापन आचार्य देवनंदि मुनिराज के आशीर्वाद से मान्य सुरेश जैन (आईएएस) भोपाल के सद्प्रयासों से किया गया था। इस पाण्डुलिपि का अवलोकन आलेख लेखक ने 12 मार्च 2022 को करके उसमें से पूर्ण जानकारी एकत्रित की है।
22/2, रामगंज, जिन्सी, इन्दौर
मो. 9826091247
mkjainmanuj@yahoo.com
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