धर्म के सर्वोच्च संत करें शिथिलाचारी संतों का उपचार
“सफेद बगुलों से खतरनाक हैं सफेद किस्म के कौए” – पी.एम.जैन
नई दिल्ली – आज धर्मछवि के वास्ते,दुनियाँ में धर्म अप्रभावना का ढ़िढ़ोरा पीटने से कई गुना अच्छा है कि धर्म के सर्वोच्च धर्मगुरुओं को “साधु परिषद” आदि का गठन करते हुए आगे आना चाहिए! क्योंकि धर्मक्षेत्र में कपडे़ चढ़ाने-उतारने का अधिकार केवल संत समाज को ही होता है ना कि श्रावक समाज को और ना ही किसी सामाजिक परिषद को यह अधिकार होता है| लेकिन…..
संत समाज आख़िर क्यों शिथिलाचार जैसे प्रकरण में अपनी चुप्पी साधे हुए है ?.
संत समाज को अपनी समाज के अन्तर्गत वरिष्ठ से वरिष्ठ संतों के सान्निध्य में प्रचलित कुरीतियों को समाप्त करने का अधिकार होना चाहिए और श्रावक समाज को अपनी समाज में गर्भित कुरीतियों पर कठोरता से निर्णय लेना चाहिए परन्तु आज के प्रचलन में कुछ संत समाज के दैवज्ञ अपनी समाज का ठ़ीकरा श्रावक समाज के सिर पर फोड़ने को क्यों उतारू हैं?.
जबकि किसी व्यक्ति को संसार से वैराग्य होता है तब उसको धार्मिक प्रोत्साहन देना, उसकी जाँच पड़ताल करना, अभ्यास कराना, दंडित करना,प्रायश्चित देना ,परीक्षा लेना,और सुसंस्कारित करके धर्महित में शिक्षा- दीक्षा देने का अधिकार केवल संत समाज को ही होता है जबकि श्रावक समाज का इतनी ही दायित्व होता है कि वह उपहून और स्थितिकरण को गति देते हुए सुसंस्कारित दैवज्ञ की धार्मिक साधना का मात्र सहयोगी बने ना कि पाप कृत्य क्रियाओं में सहभागी बने|
श्रावक समाज दैवज्ञ की निर्विघ्न साधना हेतु आरम्भ हिंसा जैसे अनेकों पापों का बोझ पहले से ही अपनी झोली में डा़लता रहता है लेकिन कुछ बगुला भक्त किस्म के लोग अपनी नेतागिरी चमकाने के लिए श्रावक समाज को कसाई बनाने से नहीं हिचकिचाते हैं|
संत समाज तो अपने अधिकारों के तहत अपने पापों का निर्वाह कर लेगा लेकिन श्रावक समाज अपने पापों का निर्वाहन कहाँ करेगा?.
संत समाज द्वारा शिथिलाचार को लेकर पूज्य दैवज्ञों का उपचार उसी भाँति करना चाहिए जिस प्रकार एक संसारिक पिता अपनी कुपथगामी संतानों का उपचार स्वयं करता है! क्योंकि आज कुछ समाजों में “सफेद बगुलों से खतरनाक, सफेद किस्म के कौए” भी हैं जो ताल-ताल और ड़ाल-डा़ल प्रतीक्षा में बैठे हैं|
समाज में पनपता शिथिलाचार अधिकाँश तौर पर उन्हीं धर्मगुरुओं की देन है जिनका “धर्म प्रभावना” छोड़ “धन पावना” पर ध्यान अधिक केन्द्रित रहा होगा|
देश की धन्नासेठ परिषदें तब कहाँ थी जब श्रावक समाज के बीच अंग्रेजों वाली चाल “फूट डालों और राज करो” के तहत समाज की प्रमुख मंदिर कमेंटियों के विरूद्ध अपने- अपने नाम के मण्ड़ल व मंचों की स्थापना की जा रही थी| कुछ दैवज्ञों ने धर्म के नाम पर जनता को गुमराह करके एक ही कालौनी में चार -चार मंदिरों का निर्माण कराके अापसी फूट में चार चाँद लगा डाले लेकिन तब धन्नासेठ परिषदों का धंधा तिलक, माला, सिर पर सॉफा और हाथों में लिफाफा के मोह में लिप्त था|
आज संत समाज विचार करे कि सोशल मीडिया,प्रिंट मीड़िया व इलैक्ट्रिक मीडिया पर उसी बंटवारे व आपसी फूट के कुपरिणाम समाने हैं जिसके तहत किसी एक दैवज्ञ का शिथिलाचार वा़यरल होने पर, धर्म-कर्म भूलकर हजारों विरोधी खडे़ हो जाते हैं|
श्रावक समाज की बात तो छोड़िए आज साधु समाज में भी अापसी कम्पटीशन इतनी चरम सीमा पर है कि राजनैतिक दलों की भाँति धर्मक्षेत्र में भी दल और दलाली पनपने लगी है जिसका प्रमाण अनदेखा नहीं किया जा सकता |
मैं अल्पज्ञ,साधु समाज से कटुवचन हेतु क्षमायाचना करते हुए करबद्ध निवेदन एवं प्रार्थना करता हूँ कि धर्म के सर्वोच्च परम पूज्य धर्मरक्षार्थ शिथिलाचार जैसे विषय पर संगठित होकर विराम चिन्ह लगाने की कृपा करें जिससे दोनों समाजों की गरिमा पर प्रश्न चिन्ह न लग सके|
पी.एम.जैन, दिल्ली, मो.09718544977