अनुकरण और अनुसरण दो शब्द एक अक्षर के भेद से बने दिखाई देते हैं। पर दोनो के मूल तात्विक अर्थ में बहुत अंतर है। देवताओं, महापुरुषों का हम अनुकरण नहीं कर सकते। क्योंकि न तो वो युग है, न हम दैवीय गुणों से युक्त बुद्धि वाले हैं और न ही हमारे कलेवर में वह शक्ति है। अतः हम उनका अनुसरण ही कर लें यही अहोभाग्य है।
हमारी संस्कृति के कई त्योहार दशहरा, रामनवमी और दीपावली राम की जीवन-गाथा से जुड़े हुए हैं। वनवास काल में श्री राम ने रंगभेद, नस्ल भेद, जातिगत-भेदभाव को अस्वीकार करते हुए निषाद राज, शबरी माता, केवट को सम्मान देकर उन सभी को अपना माना। समान सम्मान के साथ सब को एकता के सूत्र में पिरोकर समाज की संग्रहित शक्ति से उन्होने आसुरी प्रवृति पर प्रहार कर विजय प्राप्त की। राम का दृष्टिकोण व्यापक व सोच बहुआयामी है। स्वयं के सुखों से समझौता कर उन्होंने न्याय, सत्य का साथ दिया। पारिवारिक परम्पराओं को निबाहा।
कल राज्याभिषेक होगा मैं राजा बनूंगा इस पर सुख का अतिरेक नहीं, प्रात: मुझे राजपाट छोड़ वनवास जाना होगा इस पर दुखी नहीं। ऐसा होना होता है राम होना। थके-हारे पथिक को किसी सुरम्य स्थान को देख जो सुखद अनुभूति होती है उन सुखद ठहराव का अर्थ देने वाले जितने भी शब्द गढ़े गये हैं, सभी में राम अंतर्निहित है। यथा -आराम, विराम, विश्राम, अभिराम, उपराम, ग्राम। जो रमने के लिए विवश कर दे वह राम। जीवन की आपाधापी में पड़ा अशांत मन जिस आनंददायक गंतव्य की सतत तलाश में है, वह गंतव्य है राम। भारतीय मन हर स्थिति में राम को साक्षी बनाने का आदी है। दुःख में हे राम!, पीड़ा में अरे राम!, लज्जा में हाय राम!, अभिवादन में राम-राम, शपथ में राम दुहाई, अज्ञानता में राम जाने, अनिश्चितता में राम भरोसे, अचूकता के लिए रामबाण, सुशासन के लिए रामराज्य, निर्बल के बल राम, अंतिम प्रयाण के लिए राम नाम सत्य।
हमारी आत्मा सीता की तरह है। जीवन का लक्ष्य अभिमान रूपी धनुष को तोड़ कर अपनी आत्मा रूपी सीता को भगवान राम को समर्पित करना है। -स्वामी श्री वेदांती। अयोध्या राज्यारोहण के पश्चात् श्री राम ने सर्वोत्तम शासन-व्यवस्था, अर्थनीति, धर्मनीति, राजनीति की मर्यादाएं स्थापित की। उन सबके समूह का नाम हीं “राम-राज्यʼʼ है। हमारी परिकल्पना है ऐसे ही रामराज्य की है जिसका अंतिम लक्ष्य मनुष्य के अंदर के रावण को मारना है। राम द्वारा रावण का नहीं आसुरी प्रवृत्तियों का संहार किया गया था। अधिक सज्जनता विरोध का साहस छीन लेती है। शक्तिशाली को सज्जन बनाना संभव नहीं होता। लेकिन इन दोनों बातों के संगम व केंद्र श्री राम ने धर्म व वीरता को जोड़ा है। केवल गुणवान ही नहीं वीर्यवान व्यक्ति अपेक्षित है। आध्यात्मिक, सामाजिक सभी रूप में विजयदशमी का संदेश है -भीतर के तमस को उज्जवल करना और अधर्म पर धर्म की स्थापना।