ज्योतिष में नव ग्रहों का वर्णन आता है। पर इन दिनों देखा यह जा रहा है कि इन नव ग्रहों पर दसवां ग्रह, “परिग्रह” और ग्यारहवें ग्रह, ‘आग्रह’ भारी पड़ रहे हैं। परिवार के, समाज के बिखराव और देशों के परस्पर विग्रह के मुख्य कारण यही दोनों ग्रह बन रहे हैं। महावीर जानते थे कि उपभोक्तावादी संस्कृति से एक दिन अवश्य ही ऐसे स्थिति उत्पन्न होगी। इसलिए उन्होंने विश्व शांति के लिए सूत्र दिये अपरिग्रहवाद और अनेकांतवाद। अहिंसा इनमें ही समाहित है। हमारे जीवन का यथार्थ आकलन और मूल्यांकन हमारे विचार शक्ति के द्वारा होता है। जो हम सोचते है, वही वाणी द्वारा प्रवाहित करते हैं। हमारा व्यक्तित्व एवं कृतित्व का केंद्रीय नियंत्रक हमारी विचार शक्ति और वाणी ही है। यह हमारे लिए गौरव का विषय भी है और हमारे लिए रौरव भी बन सकती है। जब हमारी विचार शक्ति मंद या दूषित होती है तब हमारे जीवन का प्रवाह नीचे की ओर बहता है, संसार के क्षुद्र एवं क्षणभंगुर भोगों की ओर बहता है, मोह माया की ओर बहता है और हम जीवन के लक्ष्य से भटक जाते हैं। पदार्थों का परिग्रह और अपने हठ का आग्रह यही हमारे जीवन के एक मात्र ध्येय और उद्देश्य बन जाते हैं।हठधर्मिता (आग्रह)के चलते परिवार में परस्पर प्रेम, बोलचाल संवाद और सौहार्द का अभाव बन जाता है। पारिवारिक रिश्ते, रिश्ते ना रहकर रिसते घाव बन जाते हैं। ऐसे में महावीर के अनेकान्त, स्याद्वाद सूत्र परस्पर संबंधों और स्नेह की सूखी हुई सरिता को पुन: सरस प्रवाह देते हैं। परिवार टूटता ही वहां है जहां “ही” का प्रयोग होता है। स्याद्वाद सूत्र के “भी” का प्रयोग होते ही प्रेम की मधुर सुगंध अपनी महक देने लगती है। परिवार में आदेश नहीं समझौते/समाधान होते हैं, कायदा नहीं, व्यवस्था होती है, सूचना नहीं समझ होती है, सम्पर्क नहीं संबंध होते हैं। आपाधापी के इस दौर में जीवन से संघर्ष करते हुए बड़े तो रिश्तों को भूल से ही गये हैं, स्कूल के बस्ते के बोझ में दबा बचपन भी रिश्तों की इकाई-दहाई से अपरिचित होता जा रहा है। पद के मद, पदार्थ की लिप्सा, पैसे की प्रतिष्ठा और सांसारिक उपलब्धियों का उन्माद हमें दूसरों के दुखों के प्रति संवेदन शून्य कर देते हैं।
महावीर कहते हैं कि -ब्रह्मांड में तुम अकेले नहीं हो इसलिए जो कुछ कर रहे हो या जो कुछ उपलब्धियां प्राप्त कर रहे हो उनके लिए सर्वस्व दांव पर लगाने से पहले यह सोचो कि तुम्हारे इस कार्य से कहीं अन्य जीवो को कोई हानि तो नहीं हो रही, पीड़ा तो नहीं हो रही। किसी और द्वारा किया गया ऐसा ही कृत्य तुम्हें भी पीड़ित कर सकता है। इसलिए प्रकृति द्वारा प्रदत्त संसाधनों का उतना ही उपभोग करो जितना उसमें तुम्हारा अंश बनता है। इसी सोच का नाम महावीर का अपरिग्रहवाद है। अपने हठ पर अड़ जाना या इस भ्रम में रहना कि जो कुछ मैं कह रहा हूं, मैं कर रहा हूं वही ठीक है। यह अनावश्यक विवाद और उससे उपजी हिंसा, आक्रोश को जन्म देते हैं। अपने भाग से ज्यादा किसी और के संसाधनों को बलात अधिकृत करना या उनसे छीनना आतंक, और युद्ध की परिणिति बनते हैं। परमाणु बम की ज्वाला के मुंह पर बैठे हुए विश्व को इस समय महावीर के अनेकांत, अपरिग्रह और अहिंसा ही छुटकारा दिला सकते हैं और अन्य कोई मार्ग नहीं है। जैसे ही हम अपने इन दो ग्रह, आग्रह और परिग्रह पर अंकुश लगा देंगे शेष नव ग्रह स्वत: ही हमार रक्षक होंगे। जय महावीर। जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन