महावीर जन्म कल्याणक महोत्सव पर आत्मावलोकन-डाॅ.निर्मल जैन *से.नि.जज*

मत आना महावीर दोबारा,हम में वो श्रद्धाभाव नही-डाॅ निर्मल जैन (से.नि.जज)
वर्तमान परिपेक्ष्य में हर वो “निर्भीक कलम कोहनूर” है, जो कर्मकांड, पाखंडवाद, चमत्कार से मुक्ति दिलाने के लिए जागरूक कर रही है। भाव-आधारित जिनधर्म को हमने प्रक्रियाओं का दास बना कर तन–धन का धर्म बना दिया। धर्म को उसके मूल में पुनर्स्थापित करने के लिए आडंबर और कर्मकांड के विरुद्ध अपनों से भी लड़ना पड़े तो यह आने वाली पीढ़ियों के हितार्थ धर्मयुद्ध होगा।
आस्था-विहीन-प्रक्रिया-मूलक कर्मकांडी, हम
हम सोशल मीडिया पर शिथिलाचार और कर्मकांड पर रोते-कलपते, चिंतन की चिंता में तप रहे हैं। लेकिन पर्दे के पीछे कुछ और ही है –नए देवालय और तीर्थ निर्माण में आडंबरों के माध्यम से, अपने यश की पताका फहराने के लिए चढ़ावा की डोरी थाम, नीलामी की बोलियों के पायदान पर खड़े होकर हम अपने-अपने नाम का कीर्तिमान स्थापित करने में लगे हैं। देवालय और तीर्थ भी किसके? पैसा समाज का, संपत्ति पीढ़ी दर पीढ़ी कुछ परिवारों तक सीमित समितियों की। हमारे झंडाबरदार भी केवल एकांगी धर्म-चिन्तन और आत्म(अपना) विकास तथा धर्म प्रभावना के नाम पर भव्य आयोजनों तक ही सीमित रहे हैं। तभी तो न तीर्थ, देवालय सुरक्षित हैं, न संत ही। वक़्त रहते अगर हमने अपनी क्षमताओं और संसाधनों का सुरक्षात्मक एवं जनोपयोगी रचनात्मक उपयोग नहीं किया तो वक्त हमें बदल देगा। गिरनार जी, शिखर जी आदि की तरह सब कुछ छिन जाएगा। वीतरागता के यह प्रतीक आमोद प्रमोद स्थल तो बनते जा ही रहे हैं, साधु-संतों का विचरण भी दुर्लभ होने लगेगा। बस रह जाएंगे पोरुओं पर गिने जाने लायक सर्वश्रेष्ठ आस्था-विहीन, प्रक्रिया-मूलक-कर्मकांडी हम।
**प्रतिमा से अधिक महत्वपूर्ण सिंहासन**
प्रक्रियाओं, कर्मकांड का चक्रव्यूह भी ऐसा कि हम और हमारी आस्था के बीच “तीसरे” की अहमियत हमेशा बनी ही रहे। बिना “बैसाखी” के चल ही न सकें। महावीर तो कह गए हैं -कि किसी के छाया में बैठने से तुम्हें छाया नहीं मिलेगी, किसी के भोजन करने से तुम्हारा पेट नहीं भर सकता। किसी और की साधना से तुम्हें ना कोई पुण्य मिल सकता है ना समस्याओं का समाधान। समस्यायें तुम्हारी हैं समाधान भी तुम्हें स्वयं अपनी ही साधना, श्रम और पुरुषार्थ से मिलेगा। इस सीधे-सादे लोकोपकारी विचारधारा के सरल और निष्कंटक मार्ग में हमने मोड़ डाल कर इतना संकरा कर दिया कि “मैं” के अलावा किसी का प्रवेश होना संभव ही नहीं रह गया। जनधर्म, प्रदर्शन का माध्यम बन पंथ, संप्रदाय की संपत्ति हो गया।प्रतिमा से अधिक महत्वपूर्ण सिंहासन बना दिये।
**चारित्र बिना दर्शन और ज्ञान**
सोशल/प्रिंट मीडिया अपनी टी.आर.पी. हेतु दरबारी बन कर रह गई। हमने भी उस सर्वव्याप्त प्रभु को कुछ लोगों द्वारा निहितार्थ बनाई व्यवस्थाओं की खिड़की, रोशनदानों, दरवाजों (गेट) से देखना शुरू कर दिया। हमें मुक्ति मिले न मिले उनका “गेटपास, टोल–टेक्स” का धंधा फल-फूल रहा है। उनके मुक्ति-मार्ग के इन हाईवे के सारे स्टॉपेज सुविधा और संतुष्टि के हैं। उनमें न साधना का पुट है, न त्याग का अहसास। परिणाम हुआ कि शांति-प्रदाता साधना स्थलों का वातावरण क्रय,विक्रय-स्थल सा हो गया। जिसमें गूंजती हैं मोलतोलकरती, लड़ती,झगड़ती, डराती,धमकाती आवाज़ें। सिक्कों की खनक में डूबी इन आवाज़ों के भयंकर शोर में गिनी–चुनी संवेदनशील समाज सुकून का एक स्वर खोजने के लिए तरस रही है। सब-कुछ जीतने की जिद में धर्म ही हारता जा रहा है। कहीं कहीं दर्शन- भक्ति का उन्माद ऐसा उमड़ा कि तू नहीं बस मैं की आपा-धापी में दर्शन के स्थान पर घर्षण इतना हो गया कि आत्मा को अस्पताल तक नर्तन करना पड़ा। चारित्र के बिना दर्शन और ज्ञान को बखानती अनगिनत वेबिनार और गोष्ठियों, प्रवचनों का क्या असर होगा? संदर्भित-आसन्न-संकट का समाधान संचित-ज्ञान की बौछारों के बीच दब जाता है। भोला-भाला श्रद्धावान भयभीत हो लुट रहा है। सच लिखना, छापना तो दूर सच को सराहना भी एक साहसिक अभियान सा हो गया है।
**धन के रथ पर आरूढ़ धर्म**धन के वैभव से हम समृद्धि के द्वार तक पहुंच गए, किन्तु मन-वचन-काय से बहुत गरीब हो गए। पक्ष-राग बढ़ गया, धर्म-राग कम हो गया है। अपने पवित्र आयोजनों को भी व्यापारिक रंग-रूप दे दिया। जिनमें आध्यात्म का तेज भौतिकता की चमक-दमक में छुप जाता है। आकर्षण बन जाती हैं ऊंची बोलियाँ बोलने वाली आकृतियां। अनेकांत! वाहन, वस्त्र, आभूषण की अनेकता में दिखाई देता है, स्याद्वाद! आयोजनों के भोजन के स्वाद की लक्ष्मण रेखा में बंध गया है। धार्मिक ओजस्विता दिखे न दिखे, मालाओं और जयकारों से चेहरे जरूर दमक जाते हैं। समाज के करोड़ों रुपयों के खर्चे से होने वाले इन भव्य आयोजनों का परिणाम होता है – आशीषों के रेशम के भाव (कीमत) शिखर पर पहुँच जाते हैं, सांसारिक भावों के प्रभाव में भावपूरित ह्रदय वंचित रह जाता है। व्यवहारिक और धार्मिक दोनों जीवन में एकरूपता तो क्या कोई तालमेल तक नहीं रह गया है। एक से श्रम की प्रतिष्ठा लुप्त हो गई है, दूसरे ने साधना का आश्रय साध्य के संकेतों पर जीना स्वीकार कर लिया है। धर्म, धन के रथ पर आरूढ़ है।*
**धर्म और समाज से किनारा करती नयी पीढ़ी**
करोड़ों से लाखों में आ गए। लेकिन उसका कारण बने खुद को बदलने को किंचित मात्र भी तैयार नहीं। जैन तो एक विचारधारा है उसे जाति और परिवारों तक सीमित करने वाले सर्व-श्रेष्ठ(?) के अहं में डूबे हम अन्य को तो अपनी विचारधारा में क्या शामिल करते, हमने तो अपनी दक़ियानूसी नीति से नई पीढ़ी को भी धर्म से विमुख कर दिया है। युवा पीढ़ी जीवंत धर्म चाहती है। मात्र शब्दों का आडंबर संभालना उसके लिए रुचिकर नहीं है। हम यह कहकर कि उच्च शिक्षित हो जाने पर पास धर्म क्रियाओं के लिए समय नहीं बचेगा, आधी अधूरी शिक्षा के साथ जल्दी शादी और शिक्षित, कामकाजी मातृशक्ति के प्रति अप्रिय सम्बोधन दे कर हम खुद ही उन्हे अपने से दूर जाने को मजबूर कर रहे हैं। क्या यह सब उद्वोधन इसलिए कि अक्ल के बैलों को अंधविश्वास के हल में जोता जा सके। इन हालात में यह नई पीढ़ी धर्म और समाज के साथ कैसे जुड़ सकेगी? कंप्यूटर, वैज्ञानिक युग में जन्मी यह पीढ़ी ऑनलाइन खरीदे गए पुण्य की सत्यता को नकार रही है। उसके सामने उसका भविष्य और शिक्षा के शिखर पर पहुंचने का लक्ष्य है। दिन में भोजन, प्रतिदिन अभिषेक, दर्शन और उसका अपना लक्ष्य इन दोनों राह पर एक साथ चलना संभव ही नहीं, क्योंकि हमने सामाजिक क्षेत्र में धर्म-मंदिर तो बनाए लेकिन (अपवाद छोड़) कोई ऐसे शिक्षा-मंदिर और उससे जुड़ा छात्रावास नहीं बनाया जिस में रहकर यह पीढ़ी उच्चतम शिक्षा प्राप्त कर अपने लक्ष्य तक पहुंच जाए और हमारी विचारधारा की मूल जड़ों से भी जुड़ी रहे। अन्य विचारधारा द्वारा संचालित शिक्षा केंद्रों और हॉस्टल्स में रह कर इन सबका पालन दुष्कर है। वो समझ चुकी है कि हमारी यह सोच उससे रथ तो खिंचवाना ।चाहती है। लेकिन रथ की बागडोर उसे देने को तैयार नहीं है। इसी ऊहापोह में यह शिक्षित पीढ़ी धर्म और समाज से दूर होती जा रही है।
**हाथ में इकतारा तो होगा, सुर नहीं सजेंगे**
भावों की मर्यादा भले खंडित हो, लेकिन भोजन में मर्यादा की हमें बहुत चिंता है। जैसे जीवन खाने के लिए ही मिला है। मंदिर जी (देव दर्शन,पूजन) भी कोई स्थान विशेष थोड़े ही है, यह तो चित्त की भाव-दशा है। चित्त में अगर मांग है, प्रदर्शन है तो वहां बाज़ार है। यह मांग और प्रदर्शन यदि मंदिर में जाकर भी बना रहे तो समझो मंदिर में होकर भी मंदिर में नहीं बाजार मे ही खड़े हैं। वीतरागी का सानिध्य तभी मिल सकता है जब किसी भी प्रकार की, ना कुछ पाने की, कुछ खोने की कुछ दिखाने की, कुछ होने की आकांक्षा न बचे। मन को सीमा-रेखा में बांधने के लिए सांसारिक बाना छोड़ना मात्र बाहरी परिवर्तन तो हो सकता है। लेकिन भीतर से जिसको हम छोड़ रहे हैं, उससे संबंध छूटने के बाद हमारा उसके प्रति कोई आसक्ति, आशा-तृष्णा हमारे अंदर बाकी रह गई तो यह सिर्फ खूंटा बदलने की तरह ही है। बदला हुआ वेश जरूर दिखेगा, लेकिन वेश के अनुरूप आभामंडल गायब रहेगा। हाथ में इकतारा तो होगा, पर सुर नहीं सजेंगे।
**विद्वता का व्यवसायीकरण**हालातों पर घड़ियाली आँसू बहाते हुए हमने बुद्धि और सूचनाओं के ज्ञान को जीविकोपार्जन का साधन बना लिया है। बिना भत्ते हमारे चरण और बिना लिफाफे के हमारी वाणी मुखरित ही नहीं होती। उपाधियों का बोनस तो बहुत जरूरी है। उपाधियाँ भी कैसी-कैसी अद्भुत? हम हर पल याद रहने वाले आगम को भूल जाते हैं कि धन के बदले विद्वत्ता का व्यापार, उपाधियां स्वीकार करना खुद की विद्वता और नैतिकता से अस्वीकरण तो है ही, निर्माल्य भी है। कुछ विरले विद्वान् ही आज अपना धर्म निभा रहे हैं। ‘विद्वत्ता के इस व्यावसायिककरण’ का नामकरण धर्म-प्रभावना कर दिया है। शास्त्रीय दिशा-निर्देशों को आधुनिक सुविधा-वादियों के अनुकूल सरलीकरण करना भी सहज हो गया है। अगर आकांक्षाओं के अनुरूप जेब दरियादिली से भर देने की वचनबद्धता हो ।
**अभाव झेल रहे साधर्मी**जैन समाज में सभी धनी नहीं हैं, जो धनी हैं वे और अधिक की लालसा से त्रस्त हैं। मध्यम वर्ग की पीड़ा शिक्षा, विवाह, बीमारी, आवास आदि की समस्याओं को लेकर अनेक-मुखी है। मान-सम्मान, कर्मकांड और अपने दो-चार उपवास पर प्रदर्शन के एक सूत्रीय ऐश्वर्यशाली धार्मिक क्रिया-कलापों, की आपाधापी में समाज की विपुल धनराशि लुटाते समय किस को अवकाश है कि समाज के इस साधारण वर्ग की समस्याओं की तरफ नज़र डाले या समाधान करे? वैभव की चकाचौंध में आसपास अभाव झेल रहे साधर्मी नहीं दिखते।
**कहाँ की भक्ति, कैसा आत्म-ध्यान**
हम अति महंगे और लोक निंदा के भय से धर्मात्मा का लेबल लगाए हुए मॉडर्न क्लब तो जा नहीं सकते। लेकिन आधुनिकता रसपान की प्रबल आकांक्षा भी है। इसलिए हमने अपने वैराग्य उपजाने वाले केंद्रों को ही रस-राग से परिपूर्ण, चकाचौंध से भरे मिनी-क्लब का रूप दे दिया है। क्या पुरुष और क्या महिलाएं पूर्ण साज-श्रृंगार सहित अंगोपांग आभूषणों से अलंकृत इन परिसरों में आधुनिक भाव-भंगिमा बिखरा गायन-वादन और रसपूर्ण अभिनय करते दिखते हैं। “रिज़ॉर्ट” में कौन खर्चा करे। तो कहीं-कहीं इन्ही परिसर में जन्म-दिवस, विवाह-वर्षगांठ, में तंबोला, तीज जैसे सांसारिक आयोजन (विधान के आवरण में) किये जाने लगे हैं। ऐसे वातावरण में कहाँ की भक्ति और कैसा आत्म-ध्यान? आगम अलमारी में ध्यानस्थ मुद्रा में लीन।
**एक चाटुकार-धनवंता सौ गुणवंतों पर भारी**
ब्रह्मांड के सर्वश्रेष्ठ कलाकार हम एक ही पल में ठहाकों के साथ खिलखिलाते भी हैं और रंज में टसुए भी बहाते हैं। तीर्थ स्थलों पर आक्रांताओं द्वारा बलात कब्जा, अत्यंत जर्जर अवस्था में पुराने देवालयों की स्थिति पर आठो याम चिंतित रहते हैं। लेकिन फिर भी चीख-चीख कर बोलियों द्वारा धर्म के रेशे-रेशे की नीलामी कर लुटेरों को आकर्षित करने हेतु वीतरागी को वापस राग उपजाते नए राजप्रासाद का निर्माण कर उन में प्रतिष्ठित कर रहे हैं। पूजा-अर्चना का सभी काम वेतन-भोगी कर्मचारी के सुपुर्द कर उनकी छोटी-छोटी व्यक्तिगत सेवाओं के एवज में प्रबंधकारिणी उनके इशारों पर नाचती है। समाज के हर तीसरे घर पर एक संस्था का झंडा लहरा रहा है।
गुणवत्ता से परे सिर्फ धनवत्ता के आधार पर अंगद के पैर की तरह जमे हम धार्मिक सामंत आस्था, सुरक्षा सब कुछ पर संकट होने पर भी माइक-माला-मंच में मगन हैं।
अनंत काल से चली आ रही हमारी विचारधारा में महावीर अब तुम तो कहीं नहीं हो। कहीं संत प्रभावी तो कहीं पंथ हावी। हम आज जिस धर्म को महिमा मंडित किया जा रहा हैं, वो ऋषभ और महावीर का नहीं राग की पालकी पर सवार कल्पित प्रक्रियाओं वाला धर्म रह गया है। निर्माण, कोलाहल, कर्मकांड और धर्म के नाम पर आडंबर से सजी-धजी ऐश्वर्य-पूर्ण भव्य यात्रायें, प्रक्रियायें और आयोजन कहीं से भी वीतरागता का संदेश नहीं देते। भले ही इनमे खर्च होने वाला धन अनैतिक, जघन्य मानवीय या आर्थिक अपराधों में आकंठ डूब कर कमाया गया हो। महावीर की साधन-शुद्धि को तिलांजलि देता हुआ अपरिग्रहवाद भी उन्ही के सुविधा-युक्त महलों में निसंकोच विश्राम करता है। एक चाटुकार धनवंता सौ गुणवंतों पर भारी पड़ रहा है।
*मिलने वाला कुछ नहीं, न इस लोक में,न उस लोक में*
चेहरे चमकाने के लिए आवेश में बड़बोलेपन और अनियोजित नेतृत्व से न सुधार, न जागरण और प्रतिरक्षा तो बिलकुल नहीं होगा। शिखर जी प्रसंग की तरह स्थितियां और विषम ही होती जा रही हैं। जागरण होगा, सुधार होगा आमूलचूल परिवर्तन से। अपने-अपने हठ, पंथ, झंडे को त्याग एक होंगे, एक बनेंगे। तेरे-मेरे और गिनतियों के पीछे हमने अपने-आप को अभेद चट्टान से रेत के कणों में परिवर्तित कर लिया है। पंचम काल है यह कहने से हमारे दुष्कर्म धुल नहीं सकते। हमें बदलना होगा, क्रांति लानी होगी, स्व-हित को त्याग, समाज और धर्म-हित को धारण करना होगा।धर्म को कृत्रिम प्रक्रियाओं, बिचोलियों और धन के नागपाश से छुड़ाना होगा। धर्म तो सर्वकालिक है। धर्म पालन का कोई निश्चित समय भी नहीं न धर्म को धारण करने के लिए किसी उपकरण की और किसी स्थिति विशेष की ज़रूरत होती है। धर्म स्टपनी नहीं, जीवन रक्षक प्राणवायु है। धर्म तो “दिल” का मामला है, शरीर का नहीं। सुबह-शाम भाव और आचरण-विहीन धर्म-क्रिया कर लेने से चेहरे पर धार्मिक होने का मुखौटा भले ही चिपका लें। लेकिन मिलने वाला कुछ नहीं, न इस लोक में, न उस लोक मे👉👉न किसी से कोई पूर्वाग्रह न कोई दुराग्रह। जो हो रहा है, होता हुआ सबको दिखाई दे रहा है, जिसमें मेरा भी आंशिक योगदान है, वही लिखा है। उसके अलावा कुछ नहीं। जय महावीर