सत्य-साँसों के साथ का या बंद साँस के बाद का-डॉ. निर्मल जैन (से.नि.जज)

सत्य जीवन के हर मोड़ पर एक पारदर्शी आंख है। सत्य को कोई कैसे भी परिभाषित करले सत्य, सत्य ही रहेगा। सत्य केवल आचरण से परिलक्षित होता है। सत्य को जानना और बोलना सर्वोत्तम मानवीय गुण है। परन्तु सत्य क्या है? जब तक साँस चल रही है, सारा संसार दिख रहा है। सारी संपदा, सारे नाते-रिश्ते, परिवार दिख रहे हैं। यह मैं हूँ, ये मेरा परिवार है, सब कुछ मेरा है इसी भावना में सब जी रहे हैं। सांस थमी तो जो मेरा था सब खत्म हो गया।
एक पल में ही किसी का भी अस्तित्व मेरे लिए नहीं रहा। तो सत्य क्या है, इस सत्य का स्वरूप क्या है? साँसों के साथ जो था वो सत्य या साँस बंद हो जाने के बाद का सत्य? शाश्वत सच्चाई यह है कि हमारा कोई अस्तित्व नहीं है। हम सिर्फ अहंकार में जीवन जीते हैं। पूरा जीवन जिया पर जीते जी वास्तविक आनंद की प्राप्ति न हुई और मौत के बाद भी खोखलेपन में पड़े रहेंगे। भटकने की अनंत प्रक्रिया पूर्ववत जारी रहेगी। जिस सत्य की प्राप्ति के लिए जीवन मिला उस सत्य की खोज अधूरी रह गई।
व्यवहारिक रूप से सत्य एक पवित्र भाव है जो निश्छलता, पवित्रता और अहिंसा का प्रतीक है। उचित व अनुचित में से उचित को अपनाना, शाश्वत व क्षणभंगुर में से शाश्वत चुनना। अपने मन और बुद्धि को इस प्रकार अनुशासित व संयमित करना कि जीवन की प्रत्येक परिस्थिति में हम सही क्रिया व प्रतिक्रिया का अनुगमन करें। सत्य–भाषण का अर्थ है –वाणी का संयम, भाषा का विवेक। अधिकांश परस्पर विग्रह भाषा-विवेक के अभाव में होते हैं। बात कहने का तरीका निर्माणात्मक होना चाहिए, विध्वंसक नही। सामान्यतया असत्य-भाषण लोभ से वशीभूत हो बोला जाता है। सत्यवादिता लोभ का नाश करती है। लोभ नष्ट होते ही मन के अधिकतम विकार स्वत: ही लुप्त हो जाते हैं।
महावीर कहते हैं – सत्य का संबंध तो अहिंसा से है। अहिंसा सत्य को सौंदर्य प्रदान करती है और सत्य अहिंसा की सुरक्षा करता है। अहिंसा रहित सत्य कुरूप है और सत्य रहित अहिंसा क्षण-स्थायी है। अहिंसा के अभाव में सत्य एवं सत्य के अभाव में अहिंसा की परिकल्पना ही नहीं। शत्रु के प्रति भी, अपमानजनक, अपशब्द, हिंसक व कठोर वचन सत्य की श्रेणी में नहीं आते। सत्य, वाणी और भाषा का आभूषण है। जैसे स्नान करने से शरीर निर्मल हो जाता है वैसे ही सत्य से वाणी पवित्र होती है।
सत्य का शाब्दिक अर्थ है –“सते हितम्” यानी सभी का कल्याण। इसी कल्याण भावना को ह्रदय में बसा कर ही कोई सत्य बोल सकता है। महर्षि याज्ञवल्क्य के अनुसार –प्राणियों का हित करना और यथार्थ बोलना ही सत्य है।
सत्य को प्यार सभी करते हैं, चाहते भी हैं ।लेकिन अंगीकार नहीं करते। कर भी नहीं सकते। क्योंकि प्रवाह के विपरीत चलना सरल नही है। इतना कीमती है कि हर कोई साथ ले कर चलने से घबराता है। इसीलिए सत्य पूजा घरों, किताबों और भाषण प्रवचनों में कीमती आभूषणों की तरह क़ैद कर रखा जाता है। दुर्भावनाओं से कहा गया एक सच, हम जितना झूठ सोच सकते हैं उन सभी को मात दे देता है। कोई भी गलती तर्क–वितर्क करने से सत्य नहीं बन सकती।
असत्य की तरह सत्य को किसी के समर्थन की जरूरत होती, सत्य अपने आप अकेले ही खड़ा रह सकता है। झूठ बेवजह दलील देता है, सत्य स्वयं अपना वकील होता हैं। क्षण-क्षण धुंधलाते कालपात्र पर अंकित सभी घटनाएँ मिट जाती हैं। लेकिन उस पर किए गए सत्य के हस्ताक्षर कभी नहीं मिटते।
