डॉ. निर्मल जैन (से.नि.जज)
विज्ञान का एक सिद्धांत है। कार्य=बल×दिशा। अर्थात कार्य करने के लिए बल सही दिशा में लगाया जाए तो पूरी तरह से कार्य में परिवर्तित हो जाता है। लेकिन अगर दिशा ही गलत चुन ली तो लगाया गया बल शून्य हो जाता है। अपनी समाज, तीर्थ और संतों की सुरक्षा की वर्तमान स्थिति कह रही है कि हम यही तो इन सबके साथ कर रहे हैं। हमारे द्वारा धर्म को जगाने के लिए धन-जन-बल की पूरी शक्ति गलत दिशा में लगाया गया परिणाम शून्य बल है। क्योंकि धर्म तो हर पल चेतन है, जागृत है। यही बल अगर धर्म रक्षा के लिए सही दिशा में भगवान को रिझाने नहीं बल्कि स्वयं को जगाने के लिए लगाया जाता तो परिणाम बेहतर मिलते।
देश के सबसे अधिक धनिक हम जैन अधिकांश लाखों, करोड़ों रुपए की बड़ी-बड़ी कोठियां, गाड़ियों, औद्योगिक प्रतिष्ठानों के स्वामी हैं। इनकी सुरक्षा खुद ही करते हैं, सरकार से तो नहीं कहते कि सिपाही भेजो। अपने छोटे बच्चों को स्कूल तक पहुंचाने के लिए मुख्यमंत्री या प्रधानमंत्री से सीमा सुरक्षा बल की टुकड़ी भेजने को नहीं कहते। तब यह देवालय और संत भी तो हमारे लिए किसी भी संपदा से अधिक मूल्य वान हैं। उनकी सुरक्षा, प्रवास और विहार के लिए हम क्यों इधर-उधर मुंह ताकते हैं? क्या इनके मुकाबले हमारे प्रतिष्ठान ज्यादा प्रतिष्ठित हैं? उनके नाम से भव्य आयोजनों में चुटकियों में दस-पाँच करोड़ जुटाने वाले हम उनकी सुरक्षा के लिए तिजोरी का ताला क्यों नहीं खोलते? क्या उनके लिए हमारी श्रद्धा आस्था दिखावटी है, क्या हमारे मन में उनके लिए इतना आत्मीयता भी नहीं जितनी अपनी परिवार की किसी बच्ची के लिए होती है?
सिर्फ इतिहास की गौरव गाथा गाते हैं, अतीत से कहां सीख रहे हैं? अतीत का वो एक बड़ा भयावह कालखंड था जिसमें हमारी इतनी सामर्थ्य नहीं थी कि अपने इष्ट देवों कि रक्षा कर सकते। लेकिन वर्तमान में भी हम सुरक्षा को लेकर पूरी तरह उदासीन ही हैं। श्री गिरनार जी, श्री शिखर जी,पालिताना जी कुंडलपुर जी, गोमटेश्वर पर कहीं पूर्ण तो कहीं आंशिक अवैध कब्जा किए जाने के रूप में आडंबर, दिखावा, अति निर्माण, वैराग्य स्थलों को राग उत्पन्न करने वाले माध्यमों से सुसज्जित करने के रुझान और परिणाम सामने आ रहे हैं। हम फिर भी समाज के संसाधनों को समाज हित में न लगा कर अनियोजित नेतृत्व द्वारा विरोध, अपना झंडा ऊंचा करने मात्र की लालसा में आक्रांताओं के लिए नए तीर्थ का निर्माण करते जा रहे हैं। क्या यहां परिग्रह-परिमाण-व्रत लागू नहीं होता? हमारे घर के आगे कोई कचरा फेंक दे, हमारी पार्किंग में कोई अपना वाहन खड़ा कर दे तो पूरे परिवार सहित अहिंसा का त्याग कर देंगे। लेकिन जब तीर्थ, पूजास्थल अथवा आस्था पर कोई कुठाराघात करेगा तो अहिंसा के पुजारी के आवरण में जिनदर्शन द्वारा अनुमन्य विरोधी अहिंसा से नाता तोड़ लेना हमारी धर्म के झंडाबरदार होने की किस थुथली मनोवृत्ति को दर्शाता है?
राग के रथ पर आरूढ़, वीतरागी के उपासक हम और अधिक अंधविश्वासी, कर्मकांडी होते जा रहे हैं। धर्म रक्षा के लिए हम सही दिशा नहीं ढूंढ़ पा रहे हैं। भाईचारे के मुंह से हमारी रक्षा तब तक कोई आशीर्वाद या चमत्कार भी नहीं करेगा जब तक हम अपनी चेतना के स्तर को ऊपर उठकर सही दिशा में पुरुषार्थ आरंभ नहीं करेंगे। ये धन के लालच में भगवान या मुक्ति के फल का प्रलोभन देने वाले मायावी लोग धर्म के व्यापारी हैं। ये अपने निहितार्थ संशोधित कर धर्म का मूल स्वरूप ही बदल कर उसका व्यापारीकरण कर देते हैं।
बेशकीमती इटालियन मार्बल की सीढ़ियां बना लेने से जब तक उन पर चढ़ा ना जाए शिखर पर नहीं पहुंच जाता। इसी तरह रोज कॉन्फ्रेंस, सम्मेलन और चर्चा करने से लक्ष्य को कैसे प्राप्त कर सकते हैं? आजादी भी तकली चरखे से नहीं बलिदानियों के पराक्रम से मिली। वैसे ही सुधार और सुरक्षा थके, हारे सेनापतियों से नहीं अपितु समाज और धर्म के लिए समर्पित युवा शक्ति द्वारा ही हो सकेगा। इसलिए जरूरत है कि हम समाज और धर्म को अपने संसाधनों, उभरती नई ऊर्जा को पहचान देकर संवारें सुरक्षा करें। औरों के मोहताज न बनें। मिलावटी धर्म और प्रक्रिया परोसने वाले से बचें। वीतरागी से नाता जोड़ें। बल को सही दिशा में क्रियान्वित करें, सफलता हमारे द्वारे खड़ी है।