तीर्थंकर महावीर का निर्वाण कल्याणक महोत्सव अहिंसा और अपरिग्रह के आलोक में जीव, दया, करुणा समेटे समानता और शांति के ऐसे उजाले की कल्पना है जो सहज रूप में आखिरी पायदान पर खड़े अभाव ग्रस्त आदमी तक के लिए सुख-सुविधा का समर्थक है। निर्वाण, मन पर विजय है, समय का अतिक्रमण है। जैन विचारधारा में लक्ष्मी का अर्थ होता है निर्वाण और सरस्वती का अर्थ होता है केवल ज्ञान । तीर्थंकर महावीर को मोक्ष-लक्ष्मी की प्राप्ति हुई और उनके प्रमुख गणधर, गौतम स्वामी को केवलज्ञान रूपी सरस्वती की । इसलिए दीपावली पर हमारे द्वारा धन-लक्ष्मी नहीं इन्ही लक्ष्मी-सरस्वती का पूजन किया जाता है। गोल आकार वाले लाड़ू का आत्मा की तरह कोई ओर-छोर, आदि और अंत नहीं होता अत: आत्मा के प्रतीक रूप में लाडू को उन परम-आत्मा के चरणों में अर्पित करते हैं।
महावीर के जीवन दर्शन को आत्मसात करते हुए शाश्वत आनन्द और शांति प्राप्ति के लिए सभी पूर्वाग्रहों, दुराग्रहों को साफ करें। मिठाई भले ही न बाटें या न बांटे भाव-हिंसा से बचने हेतु वाणी में मिठास अवश्य रखें। अहिंसा की मिठाई, जुड़ाव की लक्ष्मी, सहिष्णुता की फुलझड़ी से सहयोग की भावना में निष्ठा का तेल, शुभकामनाएं और खुशियों की बाती से प्रज्वलित ज्योति द्वारा असमानता और अज्ञान के अंधकार का नाश करें। समानता के लिए अपनी कामनाओं पर अंकुश रखें। महावीर एक ही हैं, किसी एक के नहीं सबके है । हमारी सोच अलग हो सकती है, पगडंडियाँ भी भिन्न हों पर सभी का लक्ष्य तो जीवन में व्याप्त संबंधों, संस्कारों को लील रहे हिंसा और आतंक के अंधेरे से लड़ना ही है। हम तो आपस में ही लड़ते थक नहीं रहे हैं ।
महावीर के जीवन दर्शन को विस्मृत कर अगर हम यह पर्व केवल वैभव प्रदर्शन के उत्सव के रूप में झिलमिल करती लड़ियों से दीप जला कर घर आँगन को जगमग करने, खुश हो कर बम और पटाखे या अनार फोड़, फुलझड़ियां छुड़ा कर, घर की सफाई पुताई करने वैभव प्रदर्शन के लिए कीमती उपहार बांटने तक ही सीमित हैं तो यह हमारा अपने को छलने के अतिरिक्त और कुछ नहीं है। हृदय में विषय-विकार के अंधकार का डेरा है, खुश हो कर चाहे जितने बम और पटाखे, अनार फोड़ लें, फुलझड़ियां छुड़ा लें तन और मन दोनों सदा अशांत रहेंगे। सर पर मुकुट और गले में माला की लालसा में दान के नाम पर कितनी ही बड़ी बोली ले लेने पर भी आकांक्षा और कामनाओं की गलियों में भटक रहे हैं तो धर्म होता तो दिखाई देगा लेकिन पुण्य का खाता ज़ीरो ही रहेगा ।
दीपों की बाहरी जगमगाहट की रोशनी, असंख्यात जीवों का घमासान करते पटाखों और बाहरी प्रक्रियाओं के चोंचलों के दम पर आंतरिक विकारों के विष बेल को और अंधकार की विषमताओं से भरे परिवेश को पोषण ही मिलेगा, मन का दीप आलोकित नहीं हो सकेगा। आत्ममुग्धा में चाहे कितनी ही हंगामेदार दीपावलियाँ मनालें , महावीर का जयकारा बोलने, संगोष्ठियाँ करलें, शोभा यात्राएं निकाल लें इन बाहरी क्रियाओं से न आत्मा का और न जीवन का तमस् नहीं मिटेगा। कर्मकांड, भाव-रहित शरीर से की गई धार्मिक क्रियाओं और अशुद्ध साधनों से अर्जित धन के अहंकार के प्रदर्शन के साथ राग–द्वेष, ईर्ष्या, कटुता, कपट, घृणा, दुश्मनी, के विषैले ज़हर से अंदर बाहर-दोनों ही सराबोर रहेंगे, कषायों के अंधकार से मुक्ति का सच्चा शंखनाद नहीं होगा। महावीर का निर्वाणोत्सव मनाना भी सिर्फ आडंबर ही रहेगा। प्रभु महावीर के दर्शन, देशना व दीक्षा के आदर्श से भरे महा परिनिर्वाण की महात्मयता को हृदय में नही उतारेंगे तब तक कुछ नही होगा। हम इस समय एक ऐसे चौराहे पर खड़े हैं जहां तय करना है कि हमें हिंसा और आतंक का मुखौटा पहने धार्मिक उन्माद, संग्रह के प्रति जुनून के शोषण के मार्ग पर ही चलते रहना है या जीवन के बाहरी और आंतरिक पर्यावरण को स्वस्थ, सुंदर और खुशहाल बनाने के महावीर का अनुसरण करना है ।
जज (से.नि.)