बोलना समस्या है, तो चुप रहना भी समस्या है-डॉ.निर्मल जैन (से.नि.न्यायाधीश)
प्रत्येक चिंतनशील मानस में यह एक सहज जिज्ञासा उत्पन्न होती है कि आखिर हमारे जीवन में इतनी समस्याएं क्यों? हम चाहते कुछ और हैं और हमारे जीवन में होता कुछ और है। अक्सर हम खोजते हैं आनंद को और मिल जाता है विषाद। वैज्ञानिक और परमाणु विज्ञान का विकास चरम सीमा तक पहुंचने पर भी हम मनुष्यों के जीवन में अशांति ही बढ़ती जा रही है। अंदर की यह अशांति बाहरी वातावरण की शांति भी भंग कर रही है। मनोविज्ञान का सूत्र है जब भीतर में दुख, पीड़ा और बेचैनी होगी तो कितना ही छिपाने या दबाने का प्रयत्न करें जो भीतर है स्वाभाविक है कि वह सब कुछ बाहर छलकेगा, झलकेगा जरूर।
मानव जीवन के इतिहास में अब तक पूर्ण शांति का कोई भी क्षण नहीं आया। रोज कहीं ना कहीं कोई ना कोई छोटा-बड़ा युद्ध जारी है। यही नहीं जब युद्ध नहीं हो रहा होता तब युद्ध की तैयारी हो रही होती है। जब तक लड़ने की तैयारी चलती है तब तक शीत युद्ध चलता है और फिर आमने-सामने की लड़ाई शुरू हो जाती है। 24 घंटे लड़ाई और अशांति जारी रहने का कारण है कि हम में से सभी का मस्तिष्क संवेदनशील है और हम जैसा अनुभव करते हैं वैसे ही हमारा दृष्टिकोण बन जाता है।
इसलिए जितने मस्तिष्क हैं उतने ही दृष्टिकोण हो जाते हैं। हमारी दृष्टि सीमित है लेकिन सृष्टि व्यापक है । हमारा मस्तिष्क सृष्टि से भी अधिक व्यापक है क्योंकि वो अनदेखे, अनजाने छोरों तक पहुंचता है। दिल ओ दिमाग संवेदनशील होने के कारण सामान्य क्षणों को भी विशेष रूप में बदलते रहते हैं। ऐसी स्थिति में अनेक प्रकार की समस्याओं का जन्म होना सहज और संभाव्य है।
यह भी सत्य है कि समस्याएं स्वयं अपना समाधान लेकर आती हैं। समस्या को सम्यक प्रकार से देखना और समझना ही उसका सबसे बड़ा समाधान। किसी प्रयास से पहले यह निश्चित हो जाना चाहिए की समस्या क्या है, उसका उद्गम कहाँ है? क्योंकि जिससे हम भयभीत हो रहे हैं उससे यदि परिचित हो जायें तो सरलता से हल मिल सकता है। शारीरिक चिकित्सा शास्त्र भी यही कहता है रोग के उपचार के लिए सही निदान ही आधा समाधान है। समस्या तब और गहन रूप ले लेती है जब हम समस्या का निदान किए बिना ही उसका समाधान खोजने में लग जाते हैं। जबकि समाधान की राह भी वहीं से निकलती है जहां से समस्या पैदा हुई है। इसलिए समस्या को समग्र रूप से देखना और जानना आवश्यक है।
कोई इस दुनिया में जन्म ले और समस्याग्रस्त न रहे ऐसा संभव ही नहीं। जहां जीवन है वहाँ समस्या है। यहां बोलना भी समस्या है, तो चुप रहना भी एक समस्या है। किसी की बात सुनना समस्या है और नहीं सुनना उससे भी बड़ी समस्या है। विभिन्न परिस्थितियों, बदलते वातावरण और हमारे विचारों का प्रभाव ही ऐसा है कि समस्याओं से मुक्त रहना संभव तो नहीं किंतु मुश्किल बहुत है। हम स्वयं भी तो अपने लिए किसी समस्या से कम नहीं हैं। हममें अनंत शक्ति है, शक्ति का नियोजन ठीक रूप से कर लेते हैं तो समस्या का समाधान हो सकता है। व्यवहार कहता है कि न दूसरे की टोपी पहनी जा सकती है न ही जूती। इसलिए समस्या हमारी है तो उसका हल खोजना स्वयं ही खोजना है।
औरों के पास सुझाव हो सकते हैं समाधान नहीं। वैसे भी उधार का समाधान कोई स्थाई समाधान नहीं होता। वह तो शनै-शनै पुनः समस्याएं पैदा करेगा। जीवन में बहुत कुछ है जो दूसरों से नहीं मिलता उसे स्वयं में ही खोजना पड़ता है। जो भी जीवन में श्रेष्ठ है, सत्य है, सुंदर है उसे दूसरों से मांगने का कोई औचित्य भी नहीं है। इधर-उधर भटक कर हम समस्या की जड़ों को पानी देते रहते हैं और पत्तियों को काटते, छांटते रहते हैं। परिणाम निकलता है कि जड़ों को सींचने से समस्या रूपी पत्तियां और बड़ी होती जाती हैं। हमें कार्य को नहीं, कारण को मिटाना है।
जज (से.नि.)