उपदेश वही सार्थक जिसका स्वयं के जीवन के साथ सीधा तालमेल हो -महावीर
महावीर जन्म कल्याणक महोत्सव
उपदेश वही सार्थक जिसका स्वयं के जीवन के साथ सीधा तालमेल हो –महावीर
डॉ निर्मल जैन (से.नि.न्यायाधीश)
सभी धर्मों का प्रारंभ उसके सृजन कर्ताओं द्वारा मानवीयता के सिद्धांतों के आधार को सर्वोपरि मानते हुए किया है। परन्तु वे अपने मूल में धर्म तभी तक रहे हैं जब तक कि सृजन कर्ता के मूल विचारों के आलोक में व्यवहृत रहे। समय जैसे जैसे आगे बढ़ा उस धर्म का स्वरूप उस धर्म के उपदेशकों रूपी समूह के सदस्यों के निजी स्वैच्छिक विचारों के आडम्बरों का संग्रह मात्र बन कर रह गया। धर्म की अपनी मर्यादाएं होती हैं और प्रत्येक धार्मिक को उन मर्यादाओं का पालन करना चाहिए। ताकि धर्म, आचरण और कथनी-करनी में फर्क न रहे।
महावीर के अनुसार उपदेश वही सार्थक जिसका स्वयं के जीवन के साथ सीधा तालमेल हो। कोरी भाषणबाजी हमारे शास्त्रीय ज्ञान को प्रदर्शित कर सकती हैं। लेकिन जीवन के साथ उनके दूर का भी रिश्ता नहीं जुड़ सकता। जीवन का साधना-शून्य होना और केवल किताबी-ज्ञान प्राप्त कर सिद्धांतों का प्रतिपादन करना मूलत: तो आत्म प्रवंचना ही है । स्वयं अतिक्रमण करें और दूसरों को प्रतिक्रमण में जीने की बात करना यह सब जीवन का दोहरापन ही तो है। महावीर सदैव दोहरेपन के विरोधी रहे हैं। आचरण-शुद्धि के अभाव में अनुशासन की अवहेलना करते हुए कभी अनुशास्ता नहीं बन सकते।
कथनी और करनी में ऊंच-नीच न हो शायद इसीलिए महावीर ने एक लंबी अवधि तक मौन रखा। वे तब तक चुप्पी साधे रहे जब तक परम ज्ञान को आत्मसात न कर लिया। प्रवजित होने के पश्चात अनेक ऐसे अवसर आए होंगे जब महावीर को देशना देना चाहिए थी, पर महावीर ने मौन रखना ही उचित रखा। लेकिन सत्य यह भी रहा कि महावीर के अधर मौन रहे पर स्वयं महावीर का जीवन मुखर रहा है। शांति उनकी आभा है, वीतरागता उनका जीवन। महावीर के वचन अंधेरे में चलाए हुए तीर नहीं हैं । उनका एक भी वक्तव्य ऐसा नहीं होता जो उन्होंने परम ज्ञान को प्राप्त करने से पहले कहा हो। उनके अनुसार सत्य कहा जाना चाहिए, लेकिन सुनी सुनाई बातों के आधार पर नहीं। वह सत्य शत-शत प्रतिशत प्रमाणित कैसे हो सकता है जो अनुभव के दायरे से ना गुजरा हो?
महावीर ने कभी अनुसरण और अनुकरण की भाषा नहीं कही, अपितु मात्र दिशा-निर्देश दिया और सभी को खोज करने की प्रेरणा और स्वतंत्रता दी। धार्मिक जगत में व्यक्ति-व्यक्ति को स्वतंत्रता देना महावीर का लक्ष्य था। उन्होंने कभी इंसान को ईश्वर की कठपुतली बने नहीं दिया उन्होंने व्यक्ति को सांप्रदायिक कट्टरता से मुक्त करने की कोशिश की। क्योंकि सांप्रदायिकता में जकड़ा व्यक्ति पूर्वाग्रहों से ग्रस्त होता है, वह सत्य की खोज नहीं कर सकता। उसके लिए वह झूठ भी जो उसके संप्रदाय में मान्य हो सच होता है । महावीर के अनुसार सत्य और धर्म हर स्थान पर है, हर विचारधारा में है। इसे किसी संत, पथ या संप्रदाय विशेष की बपौती नहीं बनाया जा सकता। उनके अनुसार हर कोई अपना धर्म पालन करने के लिए स्वतंत्र हो पर अपनी मान्यताओं को दूसरों पर थोपने का प्रयास क्यों। महावीर की देशनाओं को देखें तो उन में उन्होंने कभी भी हमें कोई आदेश नहीं दिया अपितु उपदेश दिया। क्योंकि आदेश की भाषा में त्यागी जीवन की अनेक मर्यादाओं का अतिक्रमण संभव है। मान्यताओं का बलात आरोपण नहीं किया। अपितु हमें प्रेरणा दी।
बदलते समय में आचरण में फर्क हुआ लेकिन आचार संबंधी अनुशासन संहिता वही की वही रही। परिणाम हुआ कि शास्त्रीय निर्देशों, मर्यादाओं और वर्तमान के आचरण में लंबा फासला हो गया। हम आवश्यकतानुसार अनुशासन संहिता को न बदल पाए, मात्र उसमें से गलियारे निकालते चले गए। परिणाम यह हुआ कि एक पर एक अनेक नियम ताक में रख दिए गए। शास्त्र और जीवन, कथनी और करनी में स्पष्ट फर्क आ गया। महावीर का कहना था हम शास्त्रीय मोह न रखें अपितु शास्त्रीय चेतना रखें। शास्त्रों की विद्वता तो हर कोई हासिल कर सकता है। लेकिन शास्त्रीय चेतना तभी संभव है जब हमें शास्त्रों की प्रत्यक्ष अनुभूति हो। साधक धीरे-धीरे अपने आप को आत्मसात कर स्वयं का अन्वेषण करें उनके सभी सूत्र का यही कर संदेश है।
महावीर के जन्म कल्याणक महोत्सव पर उनके सूत्रों का हम मनन करें, आचरण करें, अगर कहीं भटके हैं तो सुधार करें । दर्शन के बिना ज्ञान नहीं, ज्ञान के बिना चरित्र नहीं और चरित्र के बिना मोक्ष नहीं होता। मोक्ष के बिना निर्वाण संभव ही नहीं है। दर्शन, ज्ञान, चरित्र यह तीन मार्ग हैं। मोक्ष और निर्वाण यह दोनों मार्ग फल हैं। महावीर सदा आत्मिक और नैतिक विकास के पक्षधर रहे। पहला सोपान -दर्शनशुद्धि फिर विचार शुद्धि और उसके पश्चात जीवनशुद्धि। इन्हीं तीनों का समवेत परिणाम मिलता है निर्वाण । जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन