पैसा नहीं सत्कर्म बोलता है-डॉ निर्मल जैन (से.नि.न्यायाधीश)
पैसा बचाने की अपेक्षा पैसे से किसी को बचा लिया जाए तो पैसा अधिक महत्वपूर्ण हो जाता है । नहीं तो यह जमा पूंजी हमें पाप के दर्शन कराएगी । संचित दौलत अगर अभाव जूझ रहे लोगों की जरूरत को पूरा करने में उपलब्ध कराई जाए तो पुण्य का सिंहद्वार सर्वदा खुला रहेगा । यूं भी जीवन के आखिरी चरणों में संपत्ति परिवार को देकर एवं शरीर शमशान को छोड़ कर सबने ही दुनिया से विदा होना है । जिंदगी में अगर परमार्थ की सुगंध नहीं होगी तो संचित ढेर सारी पूंजी दुर्गंध फैलाएगी । इसलिए धन कमाने के साथ-साथ परमार्थ भी कमाते चलो । एक लोकोक्ति है कि नदी का पानी सागर में मिलकर खारा हो जाए इससे पहले उसे खेतों में पहुंच कर लहलहाती फसल को जीवन-दान दिया जाए । इस वास्तविकता को सतत ध्यान रखना, ताकि शरीर पाप में प्रवृत्त न हो और संपत्ति का दुरुपयोग भी न हो ।
अपनी जरूरतें पूरा करने के लिए पैसा कमाना जरूरी है, पैसों के बिना जीवन का निर्वाह मुश्किल है । लेकिन पैसा कमाने के लिए गलत रास्ते को कभी नहीं अपनाना चाहिए, क्योंकि गलत तरीके से कमाया गया धन साधन और सुविधा तो देता है, लेकिन अभिशाप की तरह सुख-शांति में भंग पैदा करता है । आधुनिक युग में इंसानियत से अधिक पैसों को महत्व बढ़ गया है, रिश्ते दरकने लगे हैं । पैसे के कोलाहल में कर्तव्य पीछे रह गया है । जीवन में आराम तो बढ़ा लेकिन चैन खत्म हो गया है । तिजोरी और बैंक में पड़ी पूंजी निष्क्रिय होकर कराह रही है, दूसरी ओर इंसान अपनी श्रेष्ठता की गुडविल खो बैठा है । धन तभी सुख दे सकता है जब परमार्थ का सितारा भी बुलंद हो । पैसे के साथ पुण्य, प्रतिष्ठा और प्रसन्नता भी कमाना चाहिए । मनुष्य जीवन भर पैसा व संपत्ति के पीछे भागता रहता है । इसके चक्कर में वह परमात्मा को भी भुल जाता है, लेकिन परमात्मा कभी नहीं भूलते हैं । – विजयरत्न मुनि महाराज
पैसे को सुकृत, शुभ एवं श्रेष्ठ कार्य में लगाने से वह खर्च नहीं होता बल्कि वह पूंजी का निवेश होता है । जिस धन को परमार्थ में लगा देते हैं उस धन के ही हम मलिक बनते हैं । लेकिन जो धन को जीवन का साध्य बना लेता है तो वो व्यक्ति अर्थान्ध कहलाता है । अर्थान्ध के जीवन में कभी परमार्थ का द्वार उद्घाटित नहीं होता । अर्थ के पुरुषार्थ को जो परमार्थ से नियंत्रित करते हैं वे सुख एवं सौभाग्य की बगीची में सदैव रमण करते हैं । पुण्य दुकानों पर नहीं बिकते कि जिसमें ताकत हो वही खरीद सकता है, इसलिए भूल जाएं कि पैसे वाले अपने पैसे से पुण्य कमा सकते हैं । ये वो कर्म है जो केवल भावना पर ही आधारित है ।
एक भव्य धार्मिक आयोजन की समाप्ति ‘लीक से हटकर’ अतिथियों का सम्मान किया जा रहा था । एक सेठ जी को बार-बार मन में यह विचार आ रहा था कि जिन्हे माला पहनकर मानपत्र भेंट किए जा रहे हैं वे लोग मेरे से अधिक धनी तो नहीं है । लेकिन इनका इतना अधिक बहुमान क्यों किया जा रहा है ? सेठ जी ने संत से पूछ ही लिया तो संत बोले यहां सम्मान घन का नहीं, धन को परमार्थ में लगाने वालों का हो रहा है । बहुमान व्यक्ति का नहीं सत्कार्य का है, गुणगान दौलत का ही सुकृत का है । इसलिए जीवन में मात्र पूंजी संभालने में मत लगे रहना बल्कि परमार्थ कर कुछ अच्छे कर्मों का अर्जन भी कर लेना । क्योंकि जीवन की समाप्ति के बाद पैसा नहीं यह सत्कर्म ही बोलता है । जज (से.नि.) डॉ. निर्मल जैन आचार्य श्री 108 विद्यासागर जी महाराज के करकमलों में अपनी कृति प्रदान करते हुए डॉ निर्मल जैन एवं उनकी धर्मपत्नी जी।